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22. भाई फग्गू

श्री गुरू तेग बहादर जी अपने प्रचार अभियान के कार्यक्रम अनुसार आगे बढ़ते हुए सहसराम नगर पहुँचे। यहाँ गुरूघर का पुराना सेवक भाई फग्गू मसँद (मिशनरी) रहता था। वह अपने आसपास के क्षेत्रों में गुरूमति का प्रचार करते रहते थे। उन्हें जो भी कोई दशमाँश की राशि यानि आय का दसवा भाग भेंट करता, वह उस धन को एकत्रित करके गुरूदेव के दरबार में पहुँचाने का पूरा प्रयत्न करते थे, किन्तु कभी कभी ऐसा भी होता कि उनके पास कोई गरीब अथवा मोहताज आ जाता तो वह उसकी आवश्यकताएँ पूरी कर देते, इस प्रकार दसमाँश का धन सदोपयोग में खर्च कर देते। वह अपने क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय थे। हर कोई उन्हें चाचा मानता था, वह भी प्रत्येक व्यक्ति के निजी कार्यों में भी उसकी सहायता करते थे। इस प्रकर वह गुरू नानक देव जी के सिद्धान्तों का प्रचार प्रसार चला रहे थे। एक बार वर्षा के कारण चाचा फग्गू का मकान गिर गया। चाचा फग्गू जी ने पुनः निर्माण का कार्य करते समय अपने मकान के आँगन को एक बहुत बड़ा दरवाजा लगवाया और आँगन का क्षेत्रफल भी पहले से कई गुना बड़ा किया। जो कोई भी चाचा फग्गू से मिलने उनके यहाँ आता तो वह आश्चर्य में पड़ जाता और पूछता, चाचा जी ! इतना बड़ा आँगन और इतने बड़े दरवाजे की आपको क्या आवश्यकता पड़ गई है ? उत्तर में चाचा जी हँस कर कह देते– समय आयेगा, जब तुम सब कुछ जान जाओगे। श्री गुरू तेग बहादर जी अपने काफिले के रथों, घोड़ों, ऊटों सहित यात्रा करते हुए चाचा फग्गू जी को मिलने सहसराम नगर (बिहार) पहुँचे। चाचा फग्गू ने उनकी आगवानी की और उनसे आग्रह किया कि वह उसके यहाँ उतरा करें और अपना शिविर वहीं लगाएं। अब वह समय आ गया था, जिसके लिए चाचा फग्गू ने बहुत समय पहले तैयारी कर रखी थी। जनसाधारण ने देखा कि गुरूदेव जी का काफिला उस बड़े दरवाजें से सीधा अन्दर चला गया और उन्हें शिविर लगाने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। चाचा फग्गू की दूर दृष्टि की सभी ने भूरि भूरि प्रशँसा की। चाचा फग्गू ने सन्देश भेजकर समस्त संगत को एकत्रित होने को कहा। चाचा फग्गू के आँगन में गुरूदेव का दरबार सज गया। गुरूदेव जी ने प्रवचन कहे, तद्पश्चात् कीर्तनीय जत्थे ने उसी रचना को गाकर संगत को कृतार्थ किया:

साधो गोबिंद के गुन गावउ ।। रहाउ ।।
मानस जनमु अमोलक पाइओ बिरथा काहि गवावउ ।।
पतित पुनीत दीन बंधु हरि सरनि ताहि तुम आवउ ।।
गज को त्रास मिटिओ जिह सिमरत तुम काहे विसरावओ ।।

दीवान की समाप्ति पर चाचा फग्गू ने सभी गुरू सिक्खों की भेंट क्रमवार प्रस्तुत की। गुरूदेव ने उत्तर में सभी के लिए मनोकामनाएँ पूर्ण होने की आशीष दी। उपरान्त फग्गू से पूछा, किसी और की भेंट रह गई हो तो बताओ। फग्गू जी ने कहा– हजूर जहाँ तक मुझे याद है, मैंने सभी की भेंट आपके सम्मुख प्रस्तुत कर दी है। इस पर गुरूदेव जी ने कहा– ज़रा याद करो, एक माता ने कुछ विशेष उपहार दिये थे, जो आप यहाँ पर लाना भूल गये हैं। तभी चाचा को याद आई, हाँ गुरूदेव ! एक माता ने मेरे आग्रह करने पर घर के आँगन का कूड़ा ही मुझे दे दिया था। वह मैंने बहुत सँजोह कर रखा हुआ है। यह कहकर फग्गू जी कमरे में से एक पोटली उठा लाये, जिसमें वह कूड़ा था। गुरूदेव जी ने कूड़ा छानने को कहा, उसमें से एक बेरी की गुठली निकली, जिसे गुरूदेव जी के आदेश पर वहीं आँगन में बो दिया गया। कालान्तर में वह गुठली बेरी के वृक्ष के रूप में बहुत विकसित हुई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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