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16. एक सँन्यासी को उपदेश

श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी मानव समाज के कल्याण हेतु प्रचार दौरे के अन्तर्गत हरिद्वार पहुँचे। उन्होंने अपने काफिले का शिविर हरिद्वार के निकट कनखल कस्बे में लगाया। जैसे ही जनसाधारण को मालूम हुआ कि गुरू नानक देव जी के नौंवे उत्तराधिकारी वहाँ पधारे हैं तो आसपास के क्षेत्र से आपके दर्शनों को भीड़ उमड़ पड़ी। आपकी स्तुति सुनकर एक सँन्यासी आपसे विशेष रूप से मिलने चला आया। भेंट होने पर उसने अपने हृदय की व्यथा इस प्रकार कह सुनाई– हे गुरूदेव ! मैंने सुन रखा है कि गुरू नानकदेव जी गृहस्थ में रहते हुए पूर्ण सत्य की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन करते थे। बस मैं उसी शाश्वत ज्ञान की प्राप्ति के लिए भटक रहा हूँ। मैं जप, तप, व्रत और योग साधना करके थक गया हूँ। कई बार तीर्थ यात्रा भी कर आया हूँ, किन्तु मेरा मन काबू में नहीं है। अतः आप मुझे ऐसा ज्ञान प्रदान कीजिए कि मेरा ध्यान प्रभु चरणों में पूरी तरह जुड़ा रहे। गुरूदेव जी ने उसकी समस्या का समाधान करते हुए कहा– उसे ईश्वर की खोज के लिए जँगलों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु सर्वव्यापक है, जैसे फूल में सुगन्ध तथा शीशे में परछाई रहती है, वही स्थिति परमात्मा की है। उस भगवान को वह अपने हृदय में ही खोजे। उस समय गुरूदेव जी ने निम्नलिखित पद गाकर उसका मार्गदर्शन किया:

काहे रे, बन खोजन जाई ।।
सरब निवासी सदा अलेपा, तो ही संगि समाई। रहाउ ।। 1 ।।
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है, मुकर महि जैसे छाई ।।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि, घट ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरी एको जानहु, इहु गुरु गिआनु बताई ।।
जन नानक बिनु आपा चीनै, मिटै न भ्रम की काई ।। 2 ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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