2. गुरूगद्दी की प्राप्ति
श्री गुरू हरिराय जी की आयु केवल 31 वर्ष आठ माह की थी तो उन्होंने आत्मज्ञान से
अनुभव किया कि उनकी श्वासों की पूँजी समाप्त होने वाली है। अतः उन्होंने गुरू नानक
देव जी की गद्दी का आगामी उत्तराधिकारी के स्थान पर सिक्खों के अष्टम गुरू के रूप
में श्री हरिकिशन जी की नियुक्ति की घोषणा कर दी। इस घोषणा से सभी को प्रसन्नता हुई।
श्री हरिकिशन जी उस समय केवल पाँच वर्ष के थे। फिर भी गुरू हरिराय जी की घोषणा से
किसी को मतभेद नहीं था। जन साधारण अपने गुरूदेव की घोषणा में पूर्ण आस्था रखते थे।
उन्हें विश्वास था कि श्री हरिकिशन के रूप में अष्टम गुरू सिक्ख सम्प्रदाय का
कल्याण ही करेंगे। परन्तु गुरू हरिराय जी की इस घोषणा से उनके बडे पुत्र रामराय को
बहुत क्षोभ हुआ। रामराय जी को गुरूदेव ने निष्कासित किया हुआ था और वह उत्तराखण्ड
के पर्वतीय क्षेत्र की तलहटी में एक नया नगर बसाकर निवास कर रहे थे। जिसका नाम
कालान्तर में देहरादून प्रसिद्व हुआ है। यह स्थान औरँगजेब ने उपहार स्वरूप दिया था।
रामराय भले ही अपने पिता जी के निर्णय से खुश नहीं था किन्तु वह जानता था कि गुरू
नानक की गद्दी किसी की धरोहर नहीं, वह तो किसी योग्य पुरूष के लिए सुरक्षित रहती है
और उसका चयन बहुत सावधानी से किया जाता है। श्री गुरू हरिराय जी अपने निर्णय को
कार्यान्वित करने में जुट गये। उन्होंने एक विशाल समारोह का आयोजन किया, जिसमें
सिक्ख परम्परा अनुसार विधिवत् हरिकिशन को तिलक लगवाकर गुरू गद्दी पर प्रतिष्ठित कर
दिया। यह शुभ कार्य आश्विन शुक्ल पक्ष 10 संवत 1718 तदानुसार हुआ, इसके पश्चात आप
स्वयँ कार्तिक संवत 1718 को ज्योति-ज्योत समा गये। इस प्रकार समस्त सिक्ख संगत नन्हें
से गुरू को पाकर प्रसन्न थी।