6. भाई बचित्तर सिंघ जी
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नामः भाई बचित्तर सिंघ जी
जन्मः 12 अप्रैल 1663
पुत्रों के नामः भाई सँग्राम सिंघ व भाई राम सिंघ(दोनों पँथ के लिए शहीद हुए)
भाई बचित्तर सिंघ जी का एक बेटा, भाई सँग्राम सिंघ 13 मई 1710 के दिन चप्पड़चिड़ी
(सरहिंद) में शहीद हुआ था।
भाई बचित्तर सिंघ जी का दूसरा बेटा, भाई राम सिंघ जी बहादुरी के साथ 9 जून 1716
के दिन दिल्ली में शहीद हुआ था।
जन्म स्थानः गाँव अलीपुर, जिला मुजफ्फरगढ़
पिता का नामः भाई मनी सिंघ जी
दादा का नामः भाई माईदास जी
पड़दादा का नामः भाई बल्लू जी
किस खानदान से संबंधः परमार-राजपूत खानदान
कब शहीद हुएः 23 दिसम्बर 1705
कहाँ शहीद हुएः कोटला निहँग
किसके खिलाफ लड़ेः मुगलों के खिलाफ
अन्तिम सँस्कार का स्थानः कोटला निहँग
अन्तिम सँस्कार कब हुआः 23 दिसम्बर 1705
भाई बचित्तर सिंघ जी भाई मनी सिंघ जी के बेटे, भाई माईदास जी के
पोते और भाई बल्लू जी के पड़पोते थे। आपका जन्म 12 अप्रैल 1663 के दिन गाँव अलीपुर,
जिला मुजफ्फरगढ़ में हुआ था। आप उन पाँच में से एक थे, जिनको भाई मनी सिंघ जी ने गुरू
साहिब जी को अर्पित कर दिया था। भाई बचित्तर सिंघ जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा समय
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के साथ ही बिताया था। आप गुरू साहिब जी के बहुत ही
नजदीकी सिक्खों में से एक थे और गुरू साहिब जी भी उनसे बहुत स्नेह करते थे। भाई
बचित्तर सिंघ जी एक बहादुर सिपाही, दिलेर नौजवान और हमदर्द इन्सान थे। आप लड़ाई में
हमेशा सबसे आगे होकर लड़ते थे। तलवार चलाने में तो आप इतने ज्यादा माहिर थे कि कई
लोगों के साथ आप अकेले ही लड़ सकते थे और युद्धों में लड़ते भी थे। भाई बचित्तर सिंघ
जी ने गुरू साहिब जी की लगभग सारी जँगों में हिस्सा लिया था। पहली सितम्बर 1700 के
दिन जब पहाड़ी राजाओं ने एक हाथी को शराब पीलाकर किला लोहगढ़ का दरवाजा तोड़ने के लिए
भेजा तो भाई बचित्तर सिंघ जी ने श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी द्वारा दिया गया
नागनी बरछा ऐसा मारा था कि हाथी वापिस पहाड़ी फौजों की तरफ मुड़ गया और उसने पहाड़ी
फौजों को ही कुचलकर रख दिया था।
यह कुछ इस प्रकार से हैः
पहाड़ी फौजें टिडडी दल की भाँति श्री आनंदपुर साहिब के आसपास आ बैठीं। युद्ध शुरू हो
गया। पहाड़ी राजाओं की तोपों से गोलों की वर्षा होने लगी। राजा केसरीचन्द ने फतेहगढ़
के किले पर हल्ला बोल दिया। दोनों ओर से तीरों की झड़ी लग गई। सिक्खों ने शहर से
बाहर निकलकर सामना किया। रँघण घबराकर मैदान से भागने लगे। उनका नेता जगतउल्ला पहले
दिन ही मारा गया। अजीत सिंघ जी ने दुश्मन के वह परखच्चे उड़ाये कि बाकियों को भी जोश
आ गया। उन्होंने दुश्मन की कतारें साफ कर दी। गुरू साहिब जी भी एक ऊँचे स्थान से
तीर चलाते रहे। आखिर दुश्मन को पीछे हटना पड़ा। जगतउल्ला की लाश जमीन पर पड़ी रही।
सिक्खों ने उस लाश के उठाने के सभी प्रयत्न असफल कर दिये। जब रात हुई तो दोनों
सेनाएँ अपनी-अपनी छावनियों में आ गईं। दूसरे दिन फिर घेरा डाला गया। सिक्खों ने फिर
आकर मुकाबला किया। इस तरह दो महीने तक श्री आनंदपुर साहिब जी का घेरा पड़ा रहा। एक
रात जब किसी प्रकार से सफलता नहीं मिली तो पहाड़ी राजाओं ने एक और युक्ति सोची।
उन्होंने एक हाथी को शराब पीलाकर मस्त कर दिया। उसके माथे पर और आसपास लोहे की सँजो
और माथे पर एक लोहे का तवा बाँध दिया और श्री आनंदपुर साहिब जी के दरवाजे की और
धकेल दिया जिससे दरवाजा टूट जाए और पहाड़ी फौजें किले के अन्दर जा सकें। मंडी का राजा
कहता रहा कि गुरू जी के साथ सँधि के बिना काम नहीं चलेगा। पर उसकी किसी ने नहीं सुनी।
राजा केशरीचँद को मस्त हाथी की सफलता पर इतना विश्वास था कि उसने घमण्ड में आकर
डीँग मारी कि यदि रात से पहले-पहले किला फतह न किया तो मैं अपने बाप का बेटा नहीं।
आखिर किले में सिक्ख हैं भी कितने ? बस यही खिचड़ी में नकम के समान। उनका कोई अता-पता
भी नहीं चलेगा।
दुनीचँद मसँद
जब गुरू जी को इस योजना का पता चला तो उसी समय दुनीचँद मसँद को अपने क्षेत्र के कुछ
सिक्खों को साथ लेकर आया और गुरू जी के चरणों में प्रणाम किया। दुनीचँद का शरीर
साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कुछ अधिक डीलडौल वाला था, अतः गुरू जी ने सहजभाव से उस
समय कहा– हमारा हाथी भी आ गया है। हमारी और से दुनीचँद पहाड़ियों के हाथी को परास्त
करेगा। यह वाक्य सुनते ही दुनीचँद भयभीत हो गया, उसके पसीने छूटने लगे। परन्तु वह
गुरू जी के समक्ष अपनी कायरता प्रकट नहीं कर पाया। उसने कुछ मुखी सिक्खों से
सम्पर्क किया और कहा कि वह गुरू जी से कहें कि मुझसे ऐसा नहीं होगा। कहाँ मैं
मनुष्य ओर कहाँ विशालकाय हाथी। श्रद्धावान सिक्खों ने उसे बहुत समझाया कि गुरू
समर्थ हैं, उन्होंने स्वयँ सब कार्य करने हैं, बस तेरे को तो वह एक मान दिलवा रहे
हैं, किन्तु भक्ति और श्रद्धाविहिन दुनीचँद की समझ में यह बात नहीं आई। वह अपने साथ
लाये हुए व्यक्तियों से अकेले में मिला और आधी रात को दीवार फाँदकर भागने की योजना
बनाई। योजना अनुसार किले की दीवार में रस्सी लगाकर एक-एक करके उसके साथी नीचे उतर
गये। अन्त में दुनीचँद जब उतरने लगा तो उसके भारी भरकम शरीर के कारण रस्सी टूट गई
और नीचे गिर गया। उसके साथी उसे उठाकर घर ले गये। प्रातःकाल गुरू जी को सिक्खों ने
बताया कि वह कल वाला हाथी तो किले की दीवार फाँदकर अपने साथियों सहित भाग गया है।
तभी उनकी दृष्टि एक साधारण से युवक बचित्र सिंघ पर पड़ी और उन्होंने कहाः अब हमारा
यह दुबला-पतला सैनिक हाथी के साथ भिड़ेगा। यह सुनते ही श्रद्धावान बचित्र सिंघ ने कहाः
गुरू जी बस आपकी कृपा दुष्टि होनी चाहिए। इस हाथी को तो मैं चींटी की तरह मसल कर रख
दूँगा। गुरू जी प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे एक विशेष नागनी बरछा दिया और कहा– कि
यह रहा तेरा शस्त्र जो तुझे सफलता प्रदान करेगा और जो कायर होकर भागा है, मौत तो उसे
घर पर भी नहीं छोड़ेगी और ऐसा ही हुआ। दुनीचँद को घर पर साँप ने काट लिया और उसकी
मृत्यु हो गई।
उदय सिंघ और बचित्र सिंघ
गुप्तचर विभाग ने बताया कि आज किले के द्वार को तोड़ने की योजना राजा केशरीचँद ने
बनाई है और वही आज सभी पर्वतीय सैनिकों का नेतृत्व करेगा और उसने शपथ ली है कि मैं
आज इस कार्य को सफलपापूर्वक सम्पूर्ण करके लौटूँगा और हमारी विजय निश्चित है, नहीं
तो मैं नरेश कहलवाना त्याग दूँगा।इस पर गुरू जी ने तुरन्त निकट खड़े भाई उदय सिंघ को
बुलाकर कहा– आप इस केसरीचँद से दो-दो हाथ करेंगे और उसका अभिमान तोड़ेंगे। भाई
बचित्र सिंघ और भाई उदय सिंघ जी ने गुरू जी को शीश झुकाकर प्रणाम किया और युद्ध नीति
के विपरीत आज लौहगढ़ किले का दरवाजा खोल दिया, उसमें से केवल दो योद्धा घोड़े पर सवार
होकर बाहर निकले। मस्त हाथी किले के दरवाजे की ओर चल पड़ा। बचित्र सिंघ जी के हाथ
में बरछा था। उनकी भुजाएँ फड़क रही थीं। एक विचित्र दृष्य था। एक ओर पूरी तरह कवच से
लैस मस्त हाथी, जिसके माथे पर लोहे का तवा और सूँड में दोधारी तलवार बँधी थी और
दूसरी ओर केवल हाथ में बरछा लिये हुए एक साधारण आदमी। आदमी ही नहीं, वीरता का जीता
जागता पुतला। आश्रय उसे केवल प्रभु का था और निश्चय अपने गुरू पर। भाई बचित्र सिंघ
जी ने नागनी बरछा उठाकर सीधे हाथी के माथे पर दे मारा। पता नहीं उसकी बाहों में इतनी
शक्ति कहाँ से आ गई थी। बरछे की नोक लोहे की तवियों को पार करती हुई, हाथी के माथे
में चुभ गई। मस्त हाथी दर्द और पीड़ा से चिंघाड़ उठा। रक्तरँजित हो गया और अधिक मस्त
होकर पीछे की ओर दोड़ पड़ा। पीछे चली आ रही पहाड़ी सेनाएँ हाथी के पैर के नीचे आकर
कुचली गई। कइयों को हाथी ने सूँड में लगे हुए खण्डे से घायल कर दिया। भगदड़ मच गई।
बचित्र सिंघ मस्त हाथी से टकराने के बाद गुरू साहिब जी के पास पहुँचा। गुरू साहिब
जी ने उसकी शुरवीरता की प्रशँसा की। इधर तो हाथी ने पहाड़ियों को चक्की में पड़े हुए
दानों की तरह दल दिया। उधर गुरू साहिब का हुक्म मानकर उदय सिंघ सूरमा राजा केशरीचँद
का सिर तलवार के एक ही झटके से काटकर गुरू साहिब जी के पास पहुँचा। गुरू साहिब जी
ने उसे भी थपथपाया। अब पहाड़ी राजाओं की कमर टूट चुकी थी। खँडूर का राजा भी जख्मी हो
गया था। फौजें शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग खड़ी हुई। जिससे पहाड़ियों में छिपकर
जान बचा सकें। मैदान सिक्खों के हाथ रहा। 20 दिसम्बर 1705 की रात को जब गुरू जी ने
श्री आनँदपुर साहिब जी का त्याग किया तो भाई बचित्तर सिंघ जी भी साथ ही थे। गुरू
साहिब जी ने उन्हें एक जत्थे का मुखी बनाकर भेजा था। यह जत्था श्री कीरतपुर तक आराम
से निकल गया, लेकिन जब यह जत्था सरसा नदी पार करने के लिए उस तरफ रवाना हुआ तो
हमलावरों ने उन पर धावा बोल दिया। गुरू साहिब जी ने अलग-अलग जत्थों को अलग-अलग
मोर्चों पर तैनात कर दिया। गुरू साहिब जी ने भाई बचित्तर सिंघ जी को हिदायत दी कि
वो रोपड़ की तरफ अपना जत्था लेकर चले जाएँ, ताकि सरहिंद से आने वाली मुगल फौज को रोका
जा सके। जब भाई बचित्तर सिंघ जी का जत्था गाँव मलकपुर पहुँचा तो उनकी झड़प वहाँ के
निवासी रँघणों और मुगल फौजों के साथ हो गई। इस लड़ाई में सारे के सारे 100 सिंघ अनेकों
को मारकर शहीदी पा गए। भाई बचित्तर सिंघ जी इस मौके पर बहुत ही ज्यादा गम्भीर रूप
से जख्मी होकर गिर पड़े। मुगल फौजों ने समझा कि वो भी मर गए हैं और मुगल फौजें उन्हें
वहीं छोड़कर चली गईं। पीछे से आ रहे साहिबजादा अजीत सिंघ, भाई मदन सिंघ और उनके
साथियों ने जब उन्हें देखा तो, वो उन्हें उठाकर 6 किलोमीटर दूर कोटला निहँग में ले
आए। गुरू साहिब जी पहले से ही वहाँ हाजिर थे। उनके जख्म इतने गहरे थे कि आप बच नहीं
सके और शहीदी पा गए। आपकी शहीदी 23 दिसम्बर 1705 के दिन हुई।
भाई बचित्तर सिंघ जी के दो बेटे थेः भाई सँग्राम सिंघ और भाई राम सिंघ जी। इन दोनों
ने भी शहीदियाँ हासिल की थीं।