43. भाई किरपा सिंघ दत्त
भाई कृपा सिंघ दत्त भी उन सिंघों में से एक थे जो श्री चमकौर की
गढ़ी से बाहर आकर 22 दिसम्बर 1705 के दिन शहीदी प्राप्त कर गए थे। सिक्ख तवारीख में
भाई किरपा दत्त को हम श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी को याद करके ध्यान करते
हैं। 25 मई 1675 के दिन 16 कश्मीरी ब्राहम्णों का काफिला या जत्था पंडित किरपा दत्त
की अगुवाई में श्री आनँदपुर साहिब श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पास ममद माँगने
आया था, क्योंकि मुगल सम्राट औरंगजेब जबरन कश्मीरी ब्राहम्णों से इस्लाम कबूल करवाना
चाहता था। पर किरपा राम दत्त और उनके परिवार का सिक्ख पँथ के साथ बहुत पुराना नाता
है। इसका जिक्र सातवें गुरू श्री गुरू हरिराए साहिब जी के समय से मिलता है। जबकि
कुछ सोमों या लेखों के मुताबिक यह परिवार श्री गुरू नानक देव जी के समय से ही सिक्ख
पँथ शामिल हो गया था, जबकि कुछ लेख इन्हें पाँचवें और छठवें गुरू साहिब जी के समय
से जुड़ा हुआ मानते हैं। भाई किरपा राम दत्त, भाई ठाकर दास मुँझाल दत्त ब्राहम्ण
परिवार की पीढ़ी में से थे। भाई ठाकर दास कश्मीर के कस्बे मटन के रहने वाले थे। श्री
गुरू नानक देव जी जब कश्मीर गए थे तो आप मटन कस्बे में से निकलकर गए तो पंडित किरपा
दत्त के बूजुर्ग ब्रहम दास के साथ उनकी गोष्ठि भी हुई थी। पंडित ब्रहम दास जी के
पास किताबों का एक भण्डार था, जिसका वह बहुत मान और अहँकार करता था। भाई ब्रहमदास
जी को श्री गुरू नानक देव साहिब जी ने प्रचार की मँजी (मिशनरी, सीट) प्रदान की थी।
भाई किरपा राम दत्त के पिता, भाई अड़ू जी थे। इनकी मृत्यु के बाद भाई किरपा राम दत्त
जी गुरू साहिब जी के साथ जुड़े रहे। वो कश्मीरी पंडितों की टोली लेकर मदद लेने के
लिए एकदम से नहीं आ गए थे, बल्कि वो तो लम्बे समय से गुरू घर से जुड़े हुए थे और
हमेशा आते रहते थे। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी के बाद आप श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी के साथ जुड़े रहे। इनका पुराना नाम भाई किरपा दत्त था जबकि अमृतपान
करने के बाद इनका नाम भाई किरपा सिंघ दत्त हो गया। जब पहाड़ी और मुगलों ने श्री
आनँदपुर साहिब जी की घेराबन्दी की तब भी भाई किरपा सिंघ दत्त वहाँ पर ही थे। श्री
आनँदपुर साहिब जी में रहते हुए सिक्खों को बिलासपुर के राजा अजमेरचँद के साथ कई बार
दो-दो हाथ करने पड़े थे। मई 1705 में पहाड़ी और मुगल सेनाओं ने पुरी तरह से चारों ओर
से घेर लिया तो यह घेरा लगभग 7 महीने तक रहा। 20 दिसम्बर 1705 को जब गुरू साहिब जी
ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू साहिब जी के साथ जीने-मरने
की कसम खानें वाले 39 ओर सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40 सिक्खों को श्री आनँदपुर
साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला
निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी
ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह
जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी
में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया। जबकि मुगलों की गिनती लगभग
10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई। सिक्खों ने गुरिल्ला
लड़ाई का सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था लेकर गढ़ी में से निकलते और लाखों
हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि शहीद नहीं हो जाते। शाम तक बहुत से
सिक्ख शहीद हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार सिंघ जी भी शहीदी
पा गए थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे। इनमें भाई किरपा सिंघ दत्त भी
शामिल थे। इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25 दिसम्बर 1705 वाले दिन किया
गया।