SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

38. भाई आलिम सिंघ नच्चणा (चौहान)

  • नामः भाई आलिम सिंघ नच्चणा
    निवासीः सिआलकोट
    पिता का नामः दुरगादास जी
    दादा का नामः पदम राए
    पड़दादा का नामः कौलदास
    पहला नामः आलमचँद
    अमृतपान करने के बाद नामः भाई आलिम सिंघ नच्चणा
    किस खानदान से संबंधः चौहान-राजपूत खानदान
    आप श्री आनँदपुर साहिब जी की सभी लड़ाईयों में शामिल थे।
    गुरू साहिब जी ने भाई आलिम सिंघ नच्चणा को अपना डयूटी बरदार नियुक्त किया था।
    लोहगढ़ किले पर जब हमला हुआ था तो आपने हमलावरों का डटकर सामना किया था।
    आप निरमोहगढ़ की लड़ाई में भी गुरू साहिब जी के साथ ही थे।
    नादौन की लड़ाई में मुखी 4 जरनैलों में से एक आप भी थे।
    23 जून 1698 में गुरू साहिब जी जब शिकार खेलने गए हुए थे तो कटोचां इलाके में आप पर बलीआचँद और आलमचँद कटोज ने हमला कर दिया तब भाई आलम सिंघ नच्चणा के हाथों आलमचँद कटोज बूरी तरह से जख्मी होकर भाग गया था।
    आपके दो पुत्र भाई मोहर सिंघ और भाई अमोलक सिंघ जी चमकौर की गढ़ी में आपके साथ शहीद हुए।
    आपका एक भाई बीर सिंघ भी चमकौर की गढ़ी में आपके साथ शहीद हुआ।
    आपका तीसरा पुत्र बाघड़ सिंघ, बाबा बन्दा सिंघ बाहदुर की फौज में शामिल था। वह भी बाद में 1740 में लाहौर में शहीद हो गया था।
    जब चमकौर की गढ़ी में 37 सिक्ख शहीद हो गए तो इन्होंने इतने जोर-जोर से जयकारे लगाए कि बाकी सिक्खों का हौंसला तो बढ़ा ही, लेकिन मुगल डर गए कि पता नहीं अन्दर कितने सिक्ख ओर हैं।
    ऐसा प्रतीत होता है कि आलम सिंघ जी चमकौर की गढ़ी में शहीद होने वालों में आखिरी के शहीदों में से एक थे।
    इनकी शहीदी का जिक्र भट वहियों में भी मिलता है।
    कब शहीद हुएः 23 दिसम्बर 1705
    कहाँ शहीद हुएः चमकौर की गढ़ी
    किसके खिलाफ लड़ेः मुगलों के
    अन्तिम सँस्कार का स्थानः चमकौर की गढ़ी
    अन्तिम सँस्कार कब हुआः 25 दिसम्बर 1705

सिक्ख तवारीख में भाई आलिम सिंघ का सबसे पहला जिक्र 1673 में आता है। इस समय उसकी उम्र 13 साल थी। वह जब श्री आनँदपुर साहिब जी में अपने पिता जी के साथ सिआलकोट की संगत के साथ आए। इनके पिता भाई दुरगादास जी सिलालकोट के इलाके के मँसद और संगत के जत्थेदार थे। आलम सिंघ जी बहुत ही फूर्तीले और हर काम को छलाँगें लगाते हुए करते थे और इसी खूबी की वजह से गुरू साहिब जी ने उनका नाम "नच्चणा" रख दिया था। क्योंकि वैसे भी श्री गुरू गोबिन्द साहिब जी के दरबार में आलम नाम के बहुत सारे सिक्ख थे। भाई आलिम सिंघ चौहान-राजपूत थे। इनका पहला नाम आलमचँद था। यह पदम राए के पोते थे। भाई आलिम सिंघ को अपनी बहादूर दिखाने का पहला मौका 20 मार्च 1991 के दिन नादौन की लड़ाई में मिला। इस युद्ध के लिए जाने वाली फौज के मुखी जरनैल थेः दीवान नंदचँद, भाई परमदास बिछर, भाई मनी राम (सिंघ) और भाई आलम नच्चणा (सिंघ)। इस लड़ाई में भाई आलिम सिंघ नच्चणा जी ने बहुत बहादुरी के जौहर दिखाए। इसके बाद गुरू साहिब जी ने भाई आलिम सिंघ नच्चणा को अपना डयूटी बरदार नियुक्त किया था। भाई आलिम सिंघ नच्चणा अब हर समय गुरू साहिब जी के साथ ही रहा करता था। भाई आलिम सिंघ नच्चणा जी ने पाँच प्यारों और पाँच मुक्तों के बाद तीसरे बैच में अमृतपान किया था। श्री आनँदपुर साहिब जी में रहते हुए सिक्खों को बिलासपुर के राजा अजमेरचँद के साथ कई बार दो-दो हाथ करने पड़े थे। मई 1705 में पहाड़ी और मुगल सेनाओं ने पुरी तरह से चारों ओर से घेर लिया तो यह घेरा लगभग 7 महीने तक रहा। 20 दिसम्बर 1705 को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू साहिब जी के साथ जीने-मरने की कसम खानें वाले 39 ओर सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40 सिक्खों को श्री आनँदपुर साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया। जबकि मुगलों की गिनती लगभग 10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई। सिक्खों ने गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था लेकर गढ़ी में से निकलते और लाखों हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि शहीद नहीं हो जाते। शाम तक बहुत से सिक्ख शहीद हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार सिंघ जी भी शहीदी पा गए थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे। इनमें भी शामिल थे। इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25 दिसम्बर 1705 वाले दिन किया गया। भाई आलिम सिंघ नच्चणा जी भी ने लड़ते हुए 23 दिसम्बर 1705 को शहीदी प्राप्त की इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25 दिसम्बर 1705 वाले दिन किया गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.