31. भाई खजान सिंघ जी
भाई खजान सिंघ जी श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के नजदीकी सिंघों
में से एक थे। आप गुरू साहिब जी की फौज के एक महत्वपूर्ण सिपाही थे। आपने भी अपनी
उम्र का काफी समय श्री आनँदपुर साहिब जी में ही बिताया था। आप अक्सर श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी के साथ ही रहा करते थे। आप जी का गुरू साहिब जी के साथ अटूट प्रेम
था। आपको भी 40 सिंघों में शामिल होने का सम्मान प्राप्त है जिन्हें गुरू साहिब जी
ने मुक्तों की पदवी से सम्मानित किया था, जिन्हें श्री आनँदपुर साहिब जी और चमकौर
की गढ़ी के 40 मुक्ते कहा जाता है। आप गुरू जी की फौज के बहादुर सिपाहियों में से एक
थे, आपको अपनी बहादुरी श्री आनँदपुर साहिब जी के युद्धों में दिखाने का अवसर
प्राप्त हुआ था। श्री आनँदपुर साहिब जी में रहते हुए सिक्खों को बिलासपुर के राजा
अजमेरचँद के साथ कई बार दो-दो हाथ करने पड़े थे। मई 1705 में पहाड़ी और मुगल सेनाओं
ने पुरी तरह से चारों ओर से घेर लिया। यह घेरा लगभग 7 महीने तक रहा। 20 दिसम्बर
1705 को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू
साहिब जी के साथ जीने-मरने की कसम खानें वाले 39 ओर सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40
सिक्खों को श्री आनँदपुर साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू
साहिब जी के साथ यह कोटला निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के
सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर
किसी चमकौर निवासी ने यह जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार
मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया।
जबकि मुगलों की गिनती लगभग 10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू
हो गई। सिक्खों ने गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था लेकर गढ़ी
में से निकलते और लाखों हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि शहीद नहीं
हो जाते। शाम तक बहुत से सिक्ख शहीद हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी और
साहिबजादा जुझार सिंघ जी भी शहीदी पा गए थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे।
इनमें भाई खजान सिंघ जी भी शामिल थे। इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25
दिसम्बर 1705 वाले दिन किया गया।