15. भाई मुकन्द सिंघ (दूसरा)
भाई मुकन्द सिंघ (दूसरा) चमकौर की लड़ाई में 22 दिसम्बर 1705 के
दिन शहीदी हासिल करने वाले, 40 सिक्खों में शामिल हैं। भाई मुकन्द सिंघ (दूसरा),
भाई बाबा मंतीदास के सुपुत्र, बाबा कबुला के पोते, बाबा द्वारका दास (उर्फ लख्खी
दास) के पड़पोते थे। आप बिछर-ब्राहम्ण परिवार के साथ संबंध रखते थे। उन्हीं दिनों आप
गाँव करिआला (जिला जिहलम, पाकिस्तान) में रहते थे। यह परिवार कई पीढ़ियों से गुरू घर
से जुड़ा हुआ था। बावा द्वारका दास के पिता भाई परागदास (परागा जी) शहीद भाई मती दास
और शहीद भाई सतीदास जी आपके दादके में से थे। भाई मुकन्द सिंघ (दूसरा) बहुत ही
फूर्तीले और बहादुर नौजवान थे। आप भी श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के प्रॅमुख सिक्खों
में से एक थे। भाई मुकन्द सिंघ (दूसरा) सालों से श्री आनँदपुर साहिब जी में रह रहे
थे। उन्होंने कई लड़ाईयों में हिस्सा लिया था। 20 दिसम्बर 1705 को जब गुरू साहिब जी
ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू साहिब जी के साथ जीने-मरने
की कसम खानें वाले 39 और सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40 सिक्खों को श्री आनँदपुर
साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला
निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी
ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह
जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी
में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया। जबकि मुगलों की गिनती लगभग
10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई। सिक्ख पाँच-पाँच का
जत्था लेकर गढ़ी में से निकलते और लाखों हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब
तक कि शहीद नहीं हो जाते। शाम तक बहुत से सिक्ख शहीद हो चुके थे। इनमें भाई मुकन्द
सिंघ (दूसरा) भी शामिल थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे।