74. भाई बुढा सिंघ जी
भाई बुढा सिंघ जी भी उन सिंघों में से एक थे जो श्री चमकौर की
गढ़ी से बाहर आकर 22 दिसम्बर 1705 के दिन शहीदी प्राप्त कर गए थे। भाई बुढा सिंघ जी
काफी समय से श्री आनँदपुर साहिब जी में रह रहे थे। भाई बुढा सिंघ जी का गुरू साहिब
और साहिबजादा अजीत सिंघ जी के साथ बहुत स्नेह था। आप सरसा नदी पार करते समय भी
साहिबजादा अजीत सिंघ जी वाले जत्थे में शामिल थे। जब वह सरसा नदी पार करके कोटला
निहँग जा रहे थे तो रास्ते में गाँव मलिकपुर के पास से निकलने लगे तो उनको तकरीबन
100 सिक्खों की लाशों के ढेर नजर आए इनमें से भाई बचित्तर सिंघ जी के कराहने की
आवाज आ रही थी तो भाई बुढा सिंघ जी और साहिबजादा अजीत सिंघ जी ने सहारा देकर भाई
बचित्तर सिंघ जी को उठाया और उन्हें कोटला निहँग पहुँचाया था। श्री आनँदपुर साहिब
जी में रहते हुए सिक्खों को बिलासपुर के राजा अजमेरचँद के साथ कई बार दो-दो हाथ करने
पड़े थे। मई 1705 में पहाड़ी और मुगल सेनाओं ने पुरी तरह से चारों ओर से घेर लिया तो
यह घेरा लगभग 7 महीने तक रहा। 20 दिसम्बर 1705 को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर
साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू साहिब जी के साथ जीने-मरने की कसम खानें वाले
39 ओर सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40 सिक्खों को श्री आनँदपुर साहिब जी के 40
मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला निहँग से होते
हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी ने बुधीचँद
रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह जानकारी रोपड़
जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी में पहुँच गईं।
सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया। जबकि मुगलों की गिनती लगभग 10 लाख के
आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई। सिक्खों ने गुरिल्ला लड़ाई का
सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था लेकर गढ़ी में से निकलते और लाखों हमलावरों के
जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि शहीद नहीं हो जाते। शाम तक बहुत से सिक्ख शहीद
हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार सिंघ जी भी शहीदी पा गए थे।
रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे। इनमें भाई बुढा सिंघ जी भी शामिल थे। इन
शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25 दिसम्बर 1705 वाले दिन किया गया।