72. भाई अनंद सिंघ जी
भाई अनंद सिंघ जी भी उन 40 सिंघों में से एक थे जो श्री चमकौर
की गढ़ी से बाहर आकर 22 दिसम्बर 1705 के दिन शहीदी प्राप्त कर गए थे। आप भी श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ साहिब जी के साथ श्री आनँदपुर साहिब जी में ही रहते थे। आप गुरू साहिब
जी के दरबारी सिक्खों में से एक थे। आप गुरू जी के दरबार में रहकर गुरू घर की सेवा
किया करते थे। आप अपना घरबार छोड़कर गुरू दरबार में ही रहा करते थे उन्होंने तो गुरू
दरबार को ही अपना घर बनाया हुआ था। भाई अनंद सिंघ जी खालसा फौज का एक अहम हिस्सा
थे। जब श्री आनँदपुर साहिब जी पर मुगलों और पहाड़ियों की सँयुक्त सेनाओं ने हमला किया
तो भाई अनंद सिंघ जी ने अपनी तलवार के खूब जौहर दिखाए और आगे की पँक्तियों में आकर
लड़ाई की। भाई अनंद सिंघ जी अपनी जिन्दगी गुरू चरणों पर समपिर्त करने वाले गिने-चुने
सिक्खों में से एक थे। यह सिक्खी की खासियत है कि अमृतपान करने वाला अपना सिर गुरू
जी भेंट कर देता है। श्री आनँदपुर साहिब जी में रहते हुए सिक्खों को बिलासपुर के
राजा अजमेरचँद के साथ कई बार दो-दो हाथ करने पड़े थे। मई 1705 में पहाड़ी और मुगल
सेनाओं ने पुरी तरह से चारों ओर से घेर लिया तो यह घेरा लगभग 7 महीने तक रहा। 20
दिसम्बर 1705 को जब गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया
तो गुरू साहिब जी के साथ जीने-मरने की कसम खानें वाले 39 ओर सिक्खों के साथ आप भी
थे। इन 40 सिक्खों को श्री आनँदपुर साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता
है। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे।
सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया।
दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस
प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो
गया। जबकि मुगलों की गिनती लगभग 10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई
शुरू हो गई। सिक्खों ने गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था
लेकर गढ़ी में से निकलते और लाखों हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि
शहीद नहीं हो जाते। शाम तक बहुत से सिक्ख शहीद हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी
और साहिबजादा जुझार सिंघ जी भी शहीदी पा गए थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके
थे। इनमें भाई अनंद सिंघ जी भी शामिल थे। इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर
25 दिसम्बर 1705 वाले दिन किया गया।