68. भाई हुक्म सिंघ जी
भाई हुक्म सिंघ जी श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के प्रॅमुख और
जाने-पहचाने सिक्खों में से एक थे। आपने अपनी उम्र का आखरी हिस्सा श्री आनँदपुर
साहिब जी में श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी के पास ही बिताया था और निरमोहगढ़ और
श्री आनँदपुर साहिब जी की लड़ाईयों में सबसे आगे रहकर लड़े थे। 20 दिसम्बर 1705 को जब
गुरू साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी छोड़ने का निर्णय लिया तो गुरू साहिब जी के
साथ जीने-मरने की कसम खानें वाले 39 ओर सिक्खों के साथ आप भी थे। इन 40 सिक्खों को
श्री आनँदपुर साहिब जी के 40 मुक्ते कहकर सम्बोधित किया जाता है। गुरू साहिब जी के
साथ यह कोटला निहँग से होते हुए श्री चमकौर साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके
हुए थे। सभी ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी
ने यह जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की
गढ़ी में पहुँच गईं। सँसार का सबसे अनोखा युद्ध आरम्भ हो गया। जबकि मुगलों की गिनती
लगभग 10 लाख के आसपास थी। कुछ ही देर में जबरदस्त लड़ाई शुरू हो गई। सिक्खों ने
गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। सिक्ख पाँच-पाँच का जत्था लेकर गढ़ी में से निकलते और
लाखों हमलावरों के जूझते और तब तक जूझते रहते जब तक कि शहीद नहीं हो जाते। शाम तक
बहुत से सिक्ख शहीद हो चुके थे। साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार सिंघ जी
भी शहीदी पा गए थे। रात होने तक 35 सिक्ख शहीद हो चुके थे। इनमें भाई हुक्म सिंघ जी
भी शामिल थे। इन शहीदों का अन्तिम सँस्कार इसी स्थान पर 25 दिसम्बर 1705 वाले दिन
किया गया।