46. भाई शेर सिंघ जी और भाई नाहन सिंघ
भाई शेर सिंघ जी और भाई नाहन सिंघ ने भी 22 दिसम्बर 1705 के दिन
चमकौर की गढ़ी में शहीदी पाई थी। भाई शेर सिंघ जी और भाई नाहन सिंघ उन 500 सिक्खों
में से थे जो दिसम्बर 1705 में श्री आनँदपुर साहिब जी में हाजिर थे। 20 दिसम्बर की
रात को जब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी का त्याग किया
तो भाई शेर सिंघ जी और भाई नाहन सिंघ गुरू जी की माता, माता गुजरी जी के 460 के
जत्थे के साथ ही थे। जब माता गुजरी जी सरसा नदी पार कर गए तो यह दोनों गुरू जी के
जत्थे में आकर मिल गए। गुरू साहिब जी के साथ यह कोटला निहँग से होते हुए श्री चमकौर
साहिब जी पहुँचे। सारे के सारे सिक्ख थके हुए थे। सभी ने बुधीचँद रावत की गढ़ी में
डेरा डाल लिया। दूसरी ओर किसी चमकौर निवासी ने यह जानकारी रोपड़ जाकर वहाँ के
थानेदार को दे दी। इस प्रकार मुगल फौजें चमकौर की गढ़ी में पहुँच गईं। मुगलों की
गिनती लगभग 10 लाख के आसपास थी। 22 दिसम्बर सन 1705 को सँसार का अनोखा युद्ध
प्रारम्भ हो गया। आकाश में घनघोर बादल थे और धीमी-धीमी बूँदा-बाँदी हो रही थी। वर्ष
का सबसे छोटा दिन होने के कारण सूर्य भी बहुत देर से उदय हुआ था, कड़ाके की शीत लहर
चल रही थी किन्तु गर्मजोशी थी तो कच्ची हवेली में आश्रय लिए बैठे गुरूदेव जी के
योद्धाओं के हृदय में। कच्ची गढ़ी पर आक्रमण हुआ। भीतर से तीरों और गोलियों की बौछार
हुई। अनेक मुग़ल सैनिक हताहत हुए। दोबारा सशक्त धावे का भी यही हाल हुआ। मुग़ल
सेनापतियों को अविश्वास होने लगा था कि कोई चालीस सैनिकों की सहायता से इतना सबल भी
बन सकता है। सिक्ख सैनिक लाखों की सेना में घिरे निर्भय भाव से लड़ने-मरने का खेल,
खेल रहे थे। गढ़ी के दरवाजे की रक्षा के लिए भाई मदन सिंघ जी और भाई काठा सिंघ जी को
तैनात किया गया। उन दोनों की शहीदी के बाद भाई शेर सिंघ जी और भाई नाहन सिंघ को वहाँ
पर तैनात किया गया। इन दोनों ने भी तलवारे निकाल लीं और कई हमलावरों को मौत के
दर्शन करवाए और बहादुरी के जौहर दिखाते हुए आखिर में आप भी शहीदी पा गए।