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37. भाई हेम सिंघ जी

  • नामः भाई हेम सिंघ जी
    पिता का नामः लख्खी शाह वणजारा
    बहिन का नामः बसन्त कौर (इनका विवाह भाई मनी सिंघ जी के साथ हुआ था)
    दादा का नामः भाई गोधू
    पड़दादा का नामः भाई ठाकर
    निवासः गाँव राइसाना (जहाँ पर अब गुरूद्वारा श्री रकाबगँज साहिब जी है)
    किस खानदान से संबंधः यादव-राजपूत खानदान
    कब शहीद हुएः 16 जनवरी 1704
    कहाँ शहीद हुएः श्री आनँदपुर साहिब जी
    किसके खिलाफ लड़ेः पहाड़ी राजाओं की फौजौं के खिलाफ

भाई हेम सिंघ जी ने 16 जनवरी 1704 के दिन श्री आनँदपुर साहिब जी में शहीदी हासिल की थी। भाई हेम सिंघ जी भाई लखी राऐ यादव के बेटे, भाई गोधू के पोते और भाई ठाकर के पड़पोते थे। यह परिवार गाँव राइसाना (जहाँ पर अब गुरूद्वारा श्री रकाबगँज साहिब जी है) में रहता था। भाई लख्खी शाह बणजारे के 8 पुत्र और एक पुत्री भी थी। भाई हेम सिंघ जी इनमें से दूसरे स्थान पर थे। भाई लख्खी राए जी की एक ही पुत्री सीतो जी थी (अमृतपान करने के बाद बसन्त कौर) जिनका विवाह भाई मनी सिंघ जी के साथ हुआ था। भाई हेम सिंघ जी भाई मनी सिंघ जी के सगे साले थे। यह भाई लख्खी राए जी वही थे जिन्होंने 12 नवम्बर 1675 के दिन नौवें गुरू साहिब श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पवित्र धड़ का अन्तिम सँस्कार अपने घर को आग लगाकर किया था। गुरू साहिब जी की शहीदी के बाद गुरू साहिब जी का पवित्र धड़ चाँदनी चौक से लाने के लिए भाई लख्खी राए जी और उनके तीन बड़े पुत्र नगाहीआ सिंघ, भाई हेमा (हेम सिंघ) और भाई हाड़ी (हाड़ी सिंघ) अपनी गाड़ियों का काफिला लेकर गए थे। भाई लख्खी राए जी यादव-राजपूत थे। वह एक बहुत बड़े वणजारे (व्यापारी) थे। और उनके पास बहुत दौलत थी। यह परिवार गुरू घर से बहुत समय से जुड़ा हुआ था। भाई लख्खी राए जी के बड़े भाई, भाई कीरत जी का पुत्र भाई गुरदास, श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के साथ काफी समय रहा था। भाई हेम सिंघ जी ने श्री आनँदपुर साहिब में रहते हुए शस्त्र विद्या सीखी। आप श्री साहिब (तलवार) और तीर-कमान चलाने में बहुत महारत रखते थे। जनवरी 1704 में भाई हेम सिंघ जी श्री आनँदपुर साहिब जी आए हुए थे। उन दिनों में बिलासपुर और हँडूर (अब नालागढ़) के राजा सिक्खों से बड़ी खार खाते थे। हालाँकि इन दोनों रियासतों के पुराने राजाओं को छठवें गुरू साहिब श्री गुरू हरिगोबिन्द सिंघ साहिब जी ने ग्वालियर किले की कैद से छुड़ाया था, लेकिन इन राजाओं के वारिस अहसान फरामोश हो चुके थे। हालाँकि अक्टूबर 1700 के आखिरी में राजा अजमेरचँद की दादी के जीजा राजा सहालीचँद ने इन्हें शान्त कर दिया था। किन्तु सहालीचँद की मृत्यु के बाद (25 अक्टूबर 1702) के बाद राजा अजमेरचँद फिर से सिक्खों से पंगे लेने लग गया था। इस कारण सिक्खों और पहाड़ियों के बीच झड़पें होने लग गई थीं। सिक्खों और पहाड़ियों के बीच चल रही कश्मकश आखिर में उस समय एक लड़ाई में बदल गई जब 16 जनवरी 1704 के दिन बिलासपुर के राजा अजमेरचँद ने हँडूरी के राजा और अन्य राजाओं को साथ लेकर श्री आनँदपुर साहिब जी पर हमला कर दिया। यह लड़ाई 7-8 घण्टे तक चलती रही। इस लड़ाई में बहुत सारे पहाड़ी सिपाही मारे गए। आखिर में अन्धेरा होते ही पहाड़ी फौजें भाग गईं। इस लड़ाई में भाई हेम सिंघ और कुछ सिंघों ने शहीदियाँ हासिल कीं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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