27. भाई सरूप सिंघ जी
भाई अनूप सिंघ जी के भाई, भाई सरूप सिंघ भी 8 अक्टूबर 1700 के
दिन निरमोहगढ़ में शहीद हुए सिंघों में से एक थे। भाई सरूप सिंघ जी भी दुनीचँद मसंद
के पोते थे। दुनीचँद किसी समय में माझे क्षेत्र का मसंद था। अगस्त 1700 में जब पहाड़ी
राजा लोहगढ़ के किले का दरवाजा तोड़ने के लिए हाथी को शराब पीलाकर भेजने की योजना बना
रहे थे तो गुरू साहिब जी ने इस दुनीचँद को हाथी का मुकाबला करने के लिए कहा किन्तु
डर का मारा दुनीचँद रातों-रात ही गायब हो गया। घर पहुँचने पर उसकी साँप द्वारा काटने
पर मृत्यु हो गई। माझे क्षेत्र में दुनीचँद की बड़ी बदनामी हो रही थी। इसलिए दुनीचँद
के पोते भाई अनूप सिंघ जी और भाई सरूप सिंघ जी ने श्री आनँदपुर साहिब जी पहुँचकर
गुरू साहिब जी से दुनीचँद की हरकत की माफी माँगी। भाई सरूप सिंघ जी पालीवाल जट थे।
उनका दादा दुनीचँद भाई सालो का पोता था। भाई सालो जी ने गुरू घर की बहुत सेवा की
थी। चाहे दुनीचँद ने बुजदिली दिखाई और वह डर के मारे भाग गया, पर उसके पोते बहुत ही
दिलेर, बहादुर और जँगजूँ तबीयत के योद्धा थे। अब वह गुरू साहिब जी के पास रहने और
सेवा करने लग गए। जब गुरू जी श्री आनँदगढ़ साहिब जी को छोड़कर निरमोहगढ़ की पहाड़ी पर
चले गए तो यह दोनों भी गुरू साहिब जी के साथ ही रहे। 8 अक्टूबर 1700 के दिन जब
बिलासपुर के राजा अजमेरचँद ने बहुत बड़ी फौज के साथ श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी
पर हमला कर दिया तो भाई सरूप सिंघ जी ने ओर साथियों के साथ मिलकर पहाड़ी फौजों का
मुकाबला किया। इस समय बहुत ही जबरदस्त लड़ाई हुई। हाथों-हाथ लड़ाई में भाई सरूप सिंघ
जी ने कड़े मुकाबले में कितनों के ही सिर कलम कर दिए और उन्हें पीछे ही रहने दिया और
अन्त में आप जी ने भी शहीदी प्राप्त की।