13. भाई मंगत सिंघ जी
भाई मंगत सिंघ जी 29 अगस्त 1700 के दिन किला तारागढ़ में शहीद
हुए थे। भाई मंगत सिंघ जी भाई बिनां उप्पल के पुत्र थे। भाई संगत सिंघ जी (जिन्हें
भाई फेरू कहकर याद किया जाता है) आपके बड़े भाई थे। भाई बिंना उप्पल छठवें और सातवें
गुरू साहिबान के समय के खास सिक्खों में से एक थे। जब गुरू हरिराए साहिब जी ने अपने
बड़े बेटे रामराए को औरंगजेब के बुलावे पर दिल्ली भेजा था और रामराए ने गुरूबाणी की
बेअदबी कर दी थी, तो गुरू साहिबान जी ने रामराए को गुरू घर से बेदखल कर दिया था।
रामराए को गुरू हरिराए का हुक्म सुनाने के लिए भाई बिंना उप्पल को ही श्री कीरतपुर
साहिब जी से दिल्ली भेजा गया था। भाई संगत (भाई फेरू) भी गुरू घर से सातवें गुरू के
समय से ही जुड़े हुए थे। जब गुरू हरिक्रिशन साहिब जी दिल्ली में जोती-जोत समाए तो
भाई संगत जी वहाँ पर ही थे। जब श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी को गुरूगद्दी सौंपने
की रस्म हुई तो उस समय 11 अगस्त 1664 के दिन भी भाई संगत जी वहाँ पर हाजिर थे। नौवें
गुरू श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी के बाद जब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ
साहिब जी ने अपनी फौज तैयार की तो भाई मंगत भी इस फौज में भर्ती हुए। इस समय उनका
भाई, भाई संगत (फेरू) नक्के के इलाके (लाहौर के नजदीक) का मसँद था। 1698 में जब गुरू
गोबिन्द सिंघ साहिब जी ने मसँदों की परख की थी तो भाई संगत (फेरू) इस परीक्षा में
सफल रहे थे, तब गुरू साहिब जी ने उनको सिरोपा देकर विदा किया था। इसके बाद भाई संगत
(फेरू) जी वापिस सीआं-की-मौड़ चले गए और सिक्ख धर्म का प्रचार करते रहे। उनके छोटे
भाई, भाई मंगत सिंघ गुरू साहिब जी की सेवा में हाजिर रहे। जब गुरू साहिब जी ने खालसा
पँथ की स्थापना की तो भाई मंगत ने खण्डे की पाहुल लेकर अमृतपान किया और भाई मंगत से
भाई मंगत सिंघ बन गए। खालसा पँथ की स्थापना के बाद पहला हमला बिलासपुर की तरफ से 29
अगस्त 1700 के दिन तारागढ़ किले पर हुआ। इस मौके पर तीन घंटे तक खूब लोहा खड़का। इस
लड़ाई में भाई मंगत सिंघ जी ने दुशमनों के खूब सिर उतारे और आखिर में आप भी लड़ते-लड़ते
शहीद हो गए।