15. गुरू दंभ का परिणाम
श्री गुरू हरिराय जी एक दिन अपने सेवको के साथ सैर करने जा रहे थे। रास्ते में एक
विशालकाय साँप खेतों से निकलकर सड़क पर आ गया। उसके शरीर पर अन्नत चींटियाँ चिपकी
हुई थी और साँप अनेक स्थानों से घायल था उसका जगह जगह से रक्त बह रहा था और वह
चीटियों के काटने के कारण छटपटा रहा था। इस दुर्दशा में साँप को देखकर गुरूदेव रूक
गये उन्होंने तभी अपने तरकश से एक बाण निकाला और उस साँप के सिर को भेद दिया। इस
प्रकार साँप की मृत्यु हो गई। इस दृश्य को देखकर सेवको ने गुरूदेव से साँप के विषय
में जानने की जिज्ञासा की। गुरूदेव जी ने अपने प्रवचनों में बताया कि ‘यह सर्प
पूर्वजन्म में एक आचार्य, ब्राहम्ण था। इसे अपनी पूजा-मान्यता करवाने की सदैव इच्छा
रहती थी अतः यह जनसाधारण में अपने को आध्यात्मिक गुरू प्रतिष्ठित करवाता था। लोग
गुरू दँभ के आड़म्बर में फँस जाते थे। इस प्रकार यह जनता का शौषण करके अपना घर भरता
था। जनता पूर्ण गुरू रूप जानकर मोक्ष प्राप्ति के विचार से इसे पूजती थी किन्तु वह
वास्तविकता से अनभिज्ञ थे कि महाशय केवल पाखण्ड करते है। इसने तो परम ज्योति से कभी
साक्षात्कार किया ही नही था, अतः यह दम्मी गुरू और इसके शिष्य कल्याण प्राप्त नहीं
कर सके इसलिए इन सबको पुर्नजन्म मिला जिसमें, इसके शिष्य चींटियाँ बनकर अपने शौषण
किये गये माल का हिसाब माँग रही है। अब यह हमारी शरण में आया है तो इसका कल्याण करना
हमारा कर्त्वय बनता था सो वह कार्य हमने कर दिया है।