सन :1705 ईस्वी 20 दिसम्बर: की मध्यरात्रि का समय, पँजाब
में शीत ऋतु अपने यौवन पर थी। बाहर हडिडयाँ जमा देने वाली सर्दी थी, क्योंकि दो दिन
से घनघोर वर्षा हो रही थी और अभी भी बूँदाबाँदी हो रही थी। श्री आनंदपुर साहिब जी
में सन्नाटा था। कोसों तक फैले मुगलों के शिविरों में मौन व्याप्त था। सँसार सो रहा
था किन्तु श्री आनंदगढ साहिब जी के अन्दर कुछ हलचल थी। कोई अपना धन लूटा रहा था,
अमूल्य वस्तुओं को अग्नि भेंट करके अथवा भूमि में गाढ़कर। श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी
की श्री आनंदपुर साहिब जी में यह अन्तिम रात्रि थी। कल प्रातः न जाने वह कहाँ होंगे
और उनके बच्चे कहाँ ? श्री आनंदपुर साहिब छोड़ने से पहले वह खाली होकर, हल्का होकर
जाना चाहते थे। सभी कुछ स्वाहा करके। जो अग्नि सम्भाल न सके, उसे धरती के सुपर्द
करके, जिससे शत्रु के नापाक हाथ इन चीजों को छू न सकें, इसकी दुर्गति न हो। आधी रात
बीतने को आई। तारों के हल्के प्रकाश में छाती तनी हुई छवि वाला एक ईश्वरीय चेहरा
किले से बाहर निकला। मर्द अगमड़ा श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी श्री आनंदपुर साहिब जी
को छोड़कर जा रहे थे। आगे-आगे दो सूरमा थे। दाहिनी और मोहकम सिंघ और साहिब सिंघ,
पीछे-पीछे गुरू साहिब जी के दो बड़े लाल: साहिबजादा अजीत सिंघ जी और साहिबजादा जुझार
सिंघ जी। इनके हाथों में तीर कमान थे। इनके पीछे भाई हिम्मत सिंघ जी, सिक्का बारूद
और तोप का तोड़ा कन्धों पर उठाये आ रहे थे। उनके साथ-साथ गुलाब राय, शयाम सिंघ और
गुरू जी के अन्य सँगी साथी चल रहे थे। अन्तिम लाईन में थे गुरू के नौकर चाकर और
पाँच एक सौ भूख से सताये हुए सिक्ख। गुरू जी की माता छोटे दो साहिबजादों के साथ सबसे
पहले रवाना की जा चुकी थीं। उन्हीं के साथ गुरू साहिब जी की धर्मपत्नियाँ माता
सुन्दरी जी माता साहिब कौर जी भी चली गईं थी। ये लोग श्री आनंदपुर साहिब जी से कहाँ
जा रहे थे। यह शायद उन्हें भी पता न था। जा रहे थे परमात्मा अकाल पुरूख के भरोसे।
स्वाभिमान के बदले ताज, तख्त ठुकराने वाले व्यक्तियों का वह काफिका बिना मँजिल का
पता लगाये निकल पड़ा। इनका हर कदम मँजिल था। अभी गुरू साहिब जी सरसा नदी के इस पार
ही थे कि भोर हो गई। इसी अमृतकाल में हर रोज श्री आनंदगढ़ साहिब जी में आसा की वार
का कीर्तन सजा करता था। गुरू साहिब और सिक्ख भक्ति में जुड़ जाया करते थे और कीर्तन
का रस लेते। इस समय प्रभु से ध्यान लगाने की आदत पक्की होने के कारण शिष्यों को कुछ
खोया-खोया सा अनुभव हुआ। कई सालों में आज पहली बार वे आसा जी की वार का समय टालने
पर मजबूर हुए थे। गजों की दूरी पर बैठी दुश्मन की फौजों से बचकर वे चुपचाप जा रहे
थे। कीर्तन करना दुश्मन को बुलाकर मुसीबत मोल लेना था।
शत्रु के आक्रमण की कोई चिन्ता न करके गुरू साहिब जी ने आज्ञा
दी कि नित्य की भान्ति आसा दी वार का कीर्तन होगा। वह प्राण हथेली पर लेकर घूमने
वाला विचित्र व्यक्तियों का जत्था सरसा नदी के किनारे भक्ति रस में डूब गया। "बरसती
गोलियों की छाया के नीचे किया गया यह कीर्तन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के आत्मिक
झुकाव और मूल्यों का भौतिक फर्जों पर प्रभावी होने का सच्चा और ऊँचा नमूना प्रस्तुत
करता है।" गाय और कुरान की कसमें उठाकर गुरू साहिब जी को सही सलामत श्री आनंदपुर
साहिब जी से निकल जाने का भरोसा दिलाने वालों को जब पता लगा कि श्री गुरू गोबिन्द
सिंघ जी अपने परिवार और सिक्खों समेत सरसा नदी के किनारे पहुँच गए हैं तो वे सारे
इकरार और कसमें भूल गए। एक तो श्री आनंदपुर शहर पर हल्ला बोला उसे बुरी तरह लूटा और
दूसरी और सिक्खों के पीछे सेना डाल दी। सरसा नदी पार करते-करते कई झड़पें हुई, जिसमें
कई सिक्ख मारे गए। कई नदी में फिसलकर गिर पड़े। पाँच सौ में से केवल चालीस सिक्ख बचे
जो गुरू साहिब के साथ रोपड़ के समीप चमकौर की गढ़ी में पहुँच गए। साथ दो बड़े साहिबजादे
भी थे। इस गढ़बढ़ी में गुरू साहिब जी के दो छोटे साहिबजादे माता गुजरी जी सहित गुरू
साहिब से बिछुड़ गए। माता सुन्दरी और माता साहिब कौर, भाई मनी सिंघ जी के साथ दिल्ली
की ओर चले गए। जिसे जिधर मार्ग मिला चल पड़ा। गुरू साहिब जी ने अपनी माता और दोनों
छोटे पुत्रों को एक सिक्ख को सौपते हुए आज्ञा दी कि यदि किसी कारण वे बिछड़ जाएँ तो
उन्हें दिल्ली पहुँचा दिया जाए। गड़बड़ में जब वे सचमुच गुरू जी से बिछड़े तो उस सिक्ख
ने समीप के अपने गाँव में उन्हें ठहराने का फैसला किया और सोचा कि जब कुछ शान्ति हो
जाएगी तो उन्हें दिल्ली भेज दिया जाएगा। कीरतपुर से लगभग चार कोस की दूरी पर सरसा नदी है। जिस समय सिक्खों
का काफिला इस बरसाती नदी के किनारे पहुँचा तो इसमें भयँकर बाढ़ आई हुई थी और पानी
जोरों पर था। इस समय सिक्ख भारी कठिनाई में घिर गए। उनके पिछली तरफ शत्रु दल
मारो-मार करता आ रहा था और सामने सरसा नदी फुँकारा मार रही थी, निर्णय तुरन्त लेना
था। अतः श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने कहा कि कुछ सैनिक यहीं शत्रु को युद्ध में
उलझा कर रखों और जो सरसा पार करने की क्षमता रखते हैं वे अपने घोड़े सरसा के बहाव के
साथ नदी पार करने का प्रयत्न करें। ऐसा ही किया गया। भाई उदय सिंह तथा जीवन सिंह
अपने अपने जत्थे लेकर शत्रु के साथ भिड़ गये। इतने में गुरूदेव जी सरसा नदी पार करने
में सफल हो गए। किन्तु सैकड़ों सिंघ सरसा नदी पार करते हुए मौत का शिकार हो गए
क्योंकि पानी का वेग बहुत तीखा था। कई तो पानी के बहाव में बहते हुए कई कोस दूर बह
गए। जाड़े ऋतु की वर्षा, नदी का बर्फीला ठँडा पानी, इन बातों ने गुरूदेव जी के सैनिकों
के शरीरों को सुन्न कर दिया। इसी कारण शत्रु सेना ने सरसा नदी पार करने का साहस नहीं
किया। सरसा नदी पार करने के पश्चात 40 सिक्ख दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह तथा जुझार
सिंह के अतिरिक्त गुरूदेव जी स्वयँ कुल मिलाकर 43 व्यक्तियों की गिनती हुईं। नदी के
इस पार भाई उदय सिंह मुगलों के अनेकों हमलों को पछाड़ते रहे ओर वे तब तक वीरता से
लड़ते रहे जब तक उनके पास एक भी जीवित सैनिक था और अन्ततः वे युद्ध भूमि में गुरू
आज्ञा निभाते और कर्त्तव्य पालन करते हुए वीरगति पा गये।
इस भयँकर उथल-पुथल में गुरूदेव जी का परिवार उनसे बिछुड़ गया।
भाई मनी सिंह जी के जत्थे में माता साहिब कौर जी व माता सुन्दरी कौर जी और दो टहल
सेवा करने वाली दासियाँ थी। दो सिक्ख भाई जवाहर सिंह तथा धन्ना सिंह जो दिल्ली के
निवासी थे, यह लोग सरसा नदी पार कर पाए, यह सब हरिद्वार से होकर दिल्ली पहुँचे। जहाँ
भाई जवाहर सिंह इनको अपने घर ले गया। दूसरे जत्थे में माता गुजरी जी छोटे साहबज़ादे
जोरावर सिंघ और फतेह सिंघ तथा गँगा राम ब्राह्मण ही थे, जो गुरू घर का रसोईया था।
इसका गाँव खेहेड़ी यहाँ से लगभग 15 कोस की दूरी पर मौरिंडा कस्बे के निकट था। गँगा
राम माता गुजरी जी व साहिबज़ादों को अपने गाँव ले गया। गुरूदेव जी अपने चालीस सिक्खों
के साथ आगे बढ़ते हुए दोपहर तक चमकौर नामक क्षेत्र के बाहर एक बगीचे में पहुँचे। यहाँ
के स्थानीय लोगों ने गुरूदेव जी का हार्दिक स्वागत किया और प्रत्येक प्रकार की
सहायता की। यहीं एक किलानुमा कच्ची हवेली थी जो सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण
थी क्योंकि इसको एक ऊँचे टीले पर बनाया गया था। जिसके चारों ओर खुला समतल मैदान था।
हवेली के स्वामी बुधीचन्द ने गुरूदेव जी से आग्रह किया कि आप इस हवेली में विश्राम
करें। गुरूदेव जी ने आगे जाना उचित नहीं समझा। अतः चालीस सिक्खों को छोटी छोटी
टुकड़ियों में बाँट कर उनमें बचा खुचा असला बाँट दिया और सभी सिक्खों को मुकाबले के
लिए मोर्चो पर तैनात कर दिया। अब सभी को मालूम था कि मृत्यु निश्चित है परन्तु खालसा
सैन्य का सिद्धान्त था कि शत्रु के समक्ष हथियार नहीं डालने केवल वीरगति प्राप्त
करनी है।
अतः अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सभी सिक्ख तत्पर हो गये।
गरूदेव अपने चालीस शिष्यों की ताकत से असँख्य मुगल सेना से लड़ने की योजना बनाने लगे।
गुरूदेव जी ने स्वयँ कच्ची गढ़ी (हवेली) के ऊपर अट्टालिका में मोर्चा सम्भाला। अन्य
सिक्खों ने भी अपने अपने मोर्चे बनाए और मुगल सेना की राह देखने लगे। उधर जैसे ही
बरसाती नाला सरसा के पानी का बहाव कम हुआ। मुग़ल सेना टिड्डी दल की तरह उसे पार करके
गुरूदेव जी का पीछा करती हुई चमकौर के मैदान में पहुँची। देखते ही देखते उसने
गुरूदेव जी की कच्ची गढ़ी को घेर लिया। मुग़ल सेनापतियों को गाँव वालों से पता चल गया
था कि गुरूदेव जी के पास केवल चालीस ही सैनिक हैं। अतः वे यहाँ गुरूदेव जी को बन्दी
बनाने के स्वप्न देखने लगे। सरहिन्द के नवाब वजीर ख़ान ने भोर होते ही मुनादी करवा
दी कि यदि गुरूदेव जी अपने आपको साथियों सहित मुग़ल प्रशासन के हवाले करें तो उनकी
जान बख्शी जा सकती है। इस मुनादी के उत्तर में गुरूदेव जी ने मुग़ल सेनाओं पर तीरों
की बौछार कर दी। इस समय मुकाबला चालीस सिक्खों का हज़ारों असँख्य (लगभग 10 लाख) की
गिनती में मुग़ल सैन्यबल के साथ था। इस पर गुरूदेव जी ने भी तो एक-एक सिक्ख को
सवा-सवा लाख के साथ लड़ाने की सौगन्ध खाई हुई थी। अब इस सौगन्ध को भी विश्व के समक्ष
क्रियान्वित करके प्रदर्शन करने का शुभ अवसर आ गया था।
22 दिसम्बर सन 1705 को सँसार का अनोखा युद्ध प्रारम्भ हो गया।
आकाश में घनघोर बादल थे और धीमी धीमी बूँदाबाँदी हो रही थी। वर्ष का सबसे छोटा दिन
होने के कारण सूर्य भी बहुत देर से उदय हुआ था, कड़ाके की शीत लहर चल रही थी किन्तु
गर्मजोशी थी तो कच्ची हवेली में आश्रय लिए बैठे गुरूदेव जी के योद्धाओं के हृदय
में। कच्ची गढ़ी पर आक्रमण हुआ। भीतर से तीरों और गोलियों की बौछार हुई। अनेक मुग़ल
सैनिक हताहत हुए। दोबारा सशक्त धावे का भी यही हाल हुआ। मुग़ल सेनापतियों को
अविश्वास होने लगा था कि कोई चालीस सैनिकों की सहायता से इतना सबल भी बन सकता है।
सिक्ख सैनिक लाखों की सेना में घिरे निर्भय भाव से लड़ने-मरने का खेल, खेल रहे थे।
उनके पास जब गोला बारूद और बाण समाप्त हो गए किन्तु मुग़ल सैनिकों की गढ़ी के समीप भी
जाने की हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने तलवार और भाले का युद्ध लड़ने के लिए मैदान में
निकलना आवश्यक समझा। सर्वप्रथम भाई हिम्मत सिंघ जी को गुरूदेव जी ने आदेश दिया कि
वह अपने साथियों सहित पाँच का जत्था लेकर रणक्षेत्र में जाकर शत्रु से जूझे। तभी
मुग़ल जरनैल नाहर ख़ान ने सीढ़ी लगाकर गढ़ी पर चढ़ने का प्रयास किया किन्तु गुरूदेव जी
ने उसको वहीं बाण से भेद कर चित्त कर दिया। एक और जरनैल ख्वाजा महमूद अली ने जब
साथियों को मरते हुए देखा तो वह दीवार की ओट में भाग गया। गुरूदेव जी ने उसकी इस
बुजदिली के कारण उसे अपनी रचना में मरदूद करके लिखा है। सरहिन्द के नवाब ने सेनाओं
को एक बार इक्ट्ठे होकर कच्ची गढ़ी पर पूर्ण वेग से आक्रमण करने का आदेश दिया। किन्तु
गुरूदेव जी ऊँचे टीले की हवेली में होने के कारण सामरिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में
थे। अतः उन्होंने यह आक्रमण भी विफल कर दिया और सिँघों के बाणों की वर्षा से सैकड़ों
मुग़ल सिपाहियों को सदा की नींद सुला दिया। सिक्खों के जत्थे ने गढ़ी से बाहर आकर बढ़ रही मुग़ल सेना को करारे
हाथ दिखलाये। गढ़ी की ऊपर की अट्टालिका (अटारी) से गुरूदेव जी स्वयँ अपने योद्धाओं
की सहायता शत्रुओं पर बाण चलाकर कर रहे थे। घड़ी भर खूब लोहे पर लोहा बजा। सैकड़ों
सैनिक मैदान में ढेर हो गए। अन्ततः पाँचों सिक्ख भी शहीद हो गये। फिर गुरूदेव जी ने
पाँच सिक्खों का दूसरा जत्था गढ़ी से बाहर रणक्षेत्र में भेजा। इस जत्थे ने भी आगे
बढ़ते हुए शत्रुओं के छक्के छुड़ाए और उनको पीछे धकेल दिया और शत्रुओं का भारी जानी
नुक्सान करते हुए स्वयँ भी शहीद हो गए। इस प्रकार गुरूदेव जी ने रणनीति बनाई और
पाँच पाँच के जत्थे बारी बारी रणक्षेत्र में भेजने लगे। जब पाँचवा जत्था शहीद हो गया
तो दोपहर का समय हो गया था। सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान की हिदायतों का पालन करते
हुए जरनैल हदायत ख़ान, इसमाईल खान, फुलाद खान, सुलतान खान, असमाल खान, जहान खान,
खलील ख़ान और भूरे ख़ान एक बारगी सेनाओं को लेकर गढ़ी की ओर बढ़े। सब को पता था कि
इतना बड़ा हमला रोक पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए अन्दर बाकी बचे सिक्खों ने गुरूदेव
जी के सम्मुख प्रार्थना की कि वह साहिबजादों सहित युद्ध क्षेत्र से कहीं ओर निकल
जाएँ। यह सुनकर गुरूदेव जी ने सिक्खों से कहा: ‘तुम कौन से साहिबजादों (बेटों) की
बात करते हो, तुम सभी मेरे ही साहिबजादे हो’ गुरूदेव जी का यह उत्तर सुनकर सभी
सिक्ख आश्चर्य में पड़ गये। गुरूदेव जी के बड़े सुपुत्र अजीत सिंघ पिता जी के पास
जाकर अपनी युद्धकला के प्रदर्शन की अनुमति माँगने लगे। गुरूदेव जी ने सहर्ष उन्हें
आशीष दी और अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को प्रेरित किया। साहिबजादा अजीत सिंघ के मन
में कुछ कर गुजरने के वलवले थे, युद्धकला में निपुणता थी। बस फिर क्या था वह अपने
चार अन्य सिक्खों को लेकर गढ़ी से बाहर आए और मुगलों की सेना पर ऐसे टूट पड़े जैसे
शार्दूल मृग-शावकों पर टूटता है। अजीत सिंघ जिधर बढ़ जाते, उधर सामने पड़ने वाले
सैनिक गिरते, कटते या भाग जाते थे। पाँच सिंघों के जत्थे ने सैंकड़ों मुगलों को काल
का ग्रास बना दिया। अजीत सिंघ ने अविस्मरणीय वीरता का प्रदर्शन किया, किन्तु एक एक
ने यदि हजार हजार भी मारे हों तो सैनिकों के सागर में से चिड़िया की चोंच भर नीर ले
जाने से क्या कमी आ सकती थी। साहिबजादा अजीत सिंह को, छोटे भाई साहिबज़ादा जुझार
सिंघ ने जब शहीद होते देखा तो उसने भी गुरूदेव जी से रणक्षेत्र में जाने की आज्ञा
माँगी। गुरूदेव जी ने उसकी पीठ थपथपाई और अपने किशोर पुत्र को रणक्षेत्र में चार
अन्य सेवकों के साथ भेजा।
गुरूदेव जी जुझार सिंघ को रणक्षेत्र में जूझते हुए, को देखकर
प्रसन्न होने लगे और उसके युद्ध के कौशल देखकर जयकार के ऊँचे स्वर में नारे बुलन्द
करने लगे– "जो बोले, सो निहाल, सत् श्री अकाल"। जुझार सिंघ शत्रु सेना के बीच घिर
गये किन्तु उन्होंने वीरता के जौहर दिखलाते हुए वीरगति पाई। इन दोनों योद्धाओं की
आयु क्रमश 18 वर्ष तथा 14 वर्ष की थी। वर्षा अथवा बादलों के कारण साँझ हो गई, वर्ष
का सबसे छोटा दिन था, कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी, अन्धेरा होते ही युद्ध रूक गया।
गुरू साहिब ने दोनों साहिबजादों को शहीद होते देखकर अकालपुरूख (ईश्वर) के समक्ष
धन्यवाद, शुकराने की प्रार्थना की और कहा:
‘तेरा तुझ को सौंपते, क्या लागे मेरा’।
शत्रु अपने घायल अथवा मृत सैनिकों के शवों को उठाने के
चक्रव्यूह में फँस गया, चारों ओर अन्धेरा छा गया। इस समय गुरूदेव जी के पास सात
सिक्ख सैनिक बच रहे थे और वह स्वयँ कुल मिलाकर आठ की गिनती पूरी होती थी। मुग़ल
सेनाएँ पीछे हटकर आराम करने लगी। उन्हें अभी सन्देह बना हुआ था कि गढ़ी के भीतर
पर्याप्त सँख्या में सैनिक मौजूद हैं। रहिरास के पाठ का समय हो गया था अतः सभी
सिक्खों ने गुरूदेव जी के साथ मिलकर पाठ किया तत्पश्चात् गुरूदेव जी ने सिक्खों को
चढ़दीकला में रहकर जूझते हुए शहीद होने के लिए प्रोत्साहित किया। सभी ने शीश झुकाकर
आदेश का पालन करते हुए प्राणों की आहुति देने की शपथ ली किन्तु उन्होंने गुरूदेव जी
के चरणों में प्रार्थना की कि यदि आप समय की नज़ाकत को मद्देनज़र रखते हुए यह कच्ची
गढ़ीनुमा हवेली त्यागकर आप कहीं और चले जाएँ तो हम बाजी जीत सकते हैं क्योंकि हम मर
गए तो कुछ नहीं बिगड़ेगा परन्तु आपकी शहीदी के बाद पँथ का क्या होगा ? इस प्रकार तो
श्री गुरू नानक देव जी का लक्ष्य सम्पूर्ण नहीं हो पायेगा। यदि आप जीवित रहे तो
हमारे जैसे हज़ारों लाखों की गिनती में सिक्ख आपकी शरण में एकत्र होकर फिर से आपके
नेतृत्त्व में सँघर्ष प्रारम्भ कर देंगे। गुरूदेव जी तो दूसरों को उपदेश देते थे:
जब आव की आउध निदान बनै, अति ही रण में तब जूझ मरौ। फिर भला युद्ध से वह स्वयँ कैसे
मुँह मोड़ सकते थे ? गुरूदेव जी ने सिंघों को उत्तर दिया– मेरा जीवन मेरे प्यारे
सिक्खों के जीवन से मूल्यवान नहीं, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि मैं तुम्हें रणभूमि
में छोड़कर अकेला निकल जाऊँ। मैं रणक्षेत्र को पीठ नहीं दिखा सकता, अब तो वह स्वयँ
दिन चढ़ते ही सबसे पहले अपना जत्था लेकर युद्धभूमि में उतरेंगे। गुरूदेव जी के इस
निर्णय से सिक्ख बहुत चिन्तित हुए। वे चाहते थे कि गुरूदेव जी किसी भी विधि से यहाँ
से बचकर निकल जाएँ ताकि लोगों को भारी सँख्या में सिंघ सजाकर पुनः सँगठित होकर,
मुगलों के साथ दो दो हाथ करें। सिक्ख भी यह मन बनाए बैठे थे कि सतगुरू जी को किसी भी दशा में
शहीद नहीं होने देना। वे जानते थे कि गुरूदेव जी द्वारा दी गई शहादत इस समय पँथ के
लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होगी। अतः भाई दया सिंह जी ने एक युक्ति सोची और अपना
अन्तिम हथियार आजमाया। उन्होंने इस युक्ति के अन्तर्गत सभी सिंहों को विश्वास में
लिया और उनको साथ लेकर पुनः गुरूदेव जी के पास आये। और कहने लगे: गुरू जी, अब गुरू
खालसा, पाँच प्यारे, परमेश्वर रूप होकर, आपको आदेश देते हैं कि यह कच्ची गढ़ी आप
तुरन्त त्याग दें और कहीं सुरक्षित स्थान पर चले जाएं क्योंकि इसी नीति में पँथ
खालसे का भला है। गुरूदेव जी ने पाँच प्यारों का आदेश सुनते ही शीश झुका दिया और कहा:
मैं अब कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता क्योंकि मुझे अपने गुरू की आज्ञा का पालन करना ही
है। गुरूदेव जी ने कच्ची गढ़ी त्यागने की योजना बनाई। दो जवानों को साथ चलने को कहा।
शेष पाँचों को अलग अलग मोर्चो पर नियुक्त कर दिया। भाई जीवन सिंघ, जिसका डील-डौल,
कद-बुत तथा रूपरेखा गुरूदेव जी के साथ मिलती थी, उसे अपना मुकुट, ताज पहनाकर अपने
स्थान अट्टालिका पर बैठा दिया कि शत्रु भ्रम में पड़ा रहे कि गुरू गोबिन्द सिंघ स्वयँ
हवेली में हैं, किन्तु उन्होंने निर्णय लिया कि यहाँ से प्रस्थान करते समय हम
शत्रुओं को ललकारेगें क्योंकि चुपचाप, शान्त निकल जाना कायरता और कमजोरी का चिन्ह
माना जाएगा और उन्होंने ऐसा ही किया। देर रात गुरूदेव जी अपने दोनों साथियों दया
सिंह तथा मानसिंह सहित गढ़ी से बाहर निकले, निकलने से पहले उनको समझा दिया कि हमे
मालवा क्षेत्र की ओर जाना है और कुछ विशेष तारों की सीध में चलना है। जिससे बिछुड़ने
पर फिर से मिल सकें। इस समय बूँदाबाँदी थम चुकी थी और आकाश में कहीं कहीं बादल छाये
थे किन्तु बिजली बार बार चमक रही थी। कुछ दूरी पर अभी पहुँचे ही थे कि बिजली बहुत
तेजी से चमकी। दया सिंघ की दृष्टि रास्ते में बिखरे शवों पर पड़ी तो साहिबज़ादा अजीत
सिंह का शव दिखाई दिया, उसने गुरूदेव जी से अनुरोध किया कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं
अजीत सिंह के पार्थिव शरीर पर अपनी चादर डाल दूँ। उस समय गुरूदेव जी ने दया सिंह से
प्रश्न किया आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं। दयासिंघ ने उत्तर दिया कि गुरूदेव, पिता
जी आप के लाड़ले बेटे अजीत सिंह का यह शव है। गुरूदेव जी ने फिर पूछा क्या वे मेरे
पुत्र नहीं जिन्होंने मेरे एक सँकेत पर अपने प्राणों की आहुति दी है ? दया सिंह को
इसका उत्तर हाँ में देना पड़ा। इस पर गुरूदेव जी ने कहा यदि तुम सभी सिंहों के शवों
पर एक एक चादर डाल सकते हो, तो ठीक है, इसके शव पर भी डाल दो। भाई दया सिंह जी
गुरूदेव जी के त्याग और बलिदान को समझ गये और तुरन्त आगे बढ़ गये। योजना अनुसार
गुरूदेव जी और सिक्ख अलग-अलग दिशा में कुछ दूरी पर चले गये और वहाँ से ऊँचे स्वर
में आवाजें लगाई गई, पीर–ऐ–हिन्द जा रहा है किसी की हिम्मत है तो पकड़ ले और साथ ही
मशालचियों को तीर मारे जिससे उनकी मशालें नीचे कीचड़ में गिर कर बुझ गई और अंधेरा घना
हो गया। पुरस्कार के लालच में शत्रु सेना आवाज की सीध में भागी और आपस में भिड़ गई।
समय का लाभ उठाकर गुरूदेव जी और दोनों सिंघ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगे और यह नीति
पूर्णतः सफल रही। इस प्रकार शत्रु सेना आपस में टकरा-टकराकर कट मरी।
अगली सुबह प्रकाश होने पर शत्रु सेना को भारी निराशा हुई क्योंकि
हजारों असँख्य शवों में केवल पैंतीस शव सिक्खों के थे। उसमें भी उनको गुरू गोबिन्द
सिंघ कहीं दिखाई नहीं दिये। क्रोधतुर होकर शत्रु सेना ने गढ़ी पर पुनः आक्रमण कर दिया।
असँख्य शत्रु सैनिकों के साथ जूझते हुए अन्दर के पाँचों सिक्ख वीरगति पा गए। भाई
जीवन सिंह जी भी शहीद हो गये जिन्होंने शत्रु को झाँसा देने के लिए गुरूदेव जी की
वेशभूषा धारण की हुई थी। शव को देखकर मुग़ल सेनापति बहुत प्रसन्न हुए कि अन्त में
गुरू मार ही लिया गया। परन्तु जल्दी ही उनको मालूम हो गया कि यह शव किसी अन्य
व्यक्ति का है और गुरू तो सुरक्षित निकल गए हैं। मुग़ल सत्ताधरियों को यह एक करारी
चपत थी कि कश्मीर, लाहौर, दिल्ली और सरहिन्द की समस्त मुग़ल शक्ति सात महीने
आनन्दपुर का घेरा डालने के बावजूद भी न तो गुरू गोबिन्द सिंघ जी को पकड़ सकी और न ही
सिक्खों से अपनी अधीनता स्वीकार करवा सकी। सरकारी खजाने के लाखों रूपय व्यय हो गये।
हज़ारों की सँख्या में फौजी मारे गए पर मुग़ल अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त न कर सके।