5. नादिरशाह दुर्रानी
अफगानिस्तान के सम्राट नादिरशाह ने जनवरी, 1739 को भारत पर आक्रमण कर दिया। रास्ते
में उसे पँजाब प्रान्त के जक्रिया खान को आ दबोचा। इसने बिना सामना किए ही पराजय
स्वीकार कर ली। वास्तव में इसे सिक्खों के गौरिला युद्धों ने खोखला कर दिया था।
जक्रिया खान ने 20 लाख रूपये नज़राना भेंट करके नादिर शाह से संधि कर ली। इस पर
नादिर शाह ने प्रसन्न होकर जक्रिया खान को पुनः अपने साम्राज्य की ओर से राज्यपाल
नियुक्त कर दिया। लाहौर नगर से नादिर शाह अपनी सेना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ा, किन्तु
उसका सामना करनाल क्षेत्र में मुगल सेना से हो गया। मुगल सेना की सँख्या उस समय
लगभग 75000 थी। ऐश्वर्य का जीवन जीने वाले मुगल सैनिकों के मन में ना तो मनोबल ही
था ना ही कोई उचित योजना थी, इसलिए वह बहुत जल्दी ही पराजित हो गई और उनके हजारों
सैनिक मारे गए। इस प्रकार विजय के डंके बजाता हुआ करनाल, थानेसर (थानेश्वर), पानीपत
तथा सोनीपत में लूटमार करने लगा। इस प्रकार करोड़ो रूपये नकद, हीरे जवाहरात, तख्त
हाऊस और कोहेनूर हीरा भी नादिरशाह ने अपने कब्जे में कर लिया। जब नादिरशाह ने दिल्ली
सरकार को कँगाल कर दिया तो उसने मुहम्मदशाह के साथ एक विशेष संधि के अन्तर्गत सिंधु
नदी के उत्तर पश्चिम के क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिलाने के दस्तावेजों पर
हस्ताक्षर करवा लिए। इस प्रकार सिंध, बलूचिस्तान तथा सीमावर्ती क्षेत्र भारत से
कटकर रह गए। पहली मई, 1739 ईस्वी को नादिरशाह पाँच महीने दिल्ली में रहने के पश्चात्
अपने वतन लौटने के लिए चल पड़ा। उन दिनों गर्मी बढ़ने लगी थी। नादिरशाह चाहता था कि
वह जल्दी से जल्दी समस्त धन-दौलत के साथ सुरक्षित वापिस स्वदेश पहुँच जाए। जब इन सभी
परिस्थितियों के विषय में सिक्खों को मालूम हुआ तो वह अमृतसर साहिब में एकत्रित हुए
और उन्होंने आपस में परामर्श किया कि धन तो सभी लूटेरे ले जाते हैं, उसकी तो कोई
बात नहीं, बात तो स्वाभिमान की है, वह लूटेरा नादिरशाह हमारे देश की इज्जत अर्थात
हमारी बहू-बेटियों को भेड़ बकरियों की तरह अफगानिस्तान ले जा रहा है। यह बात सुनते
ही सभी जवानों का खून खौलने लगा और सभी ने तुरन्त शपथ ली कि हम नादिर के चँगुल से
अपना बलिदान देकर इन अबला नारियों को अवश्य ही छुड़वाएँगे। दल खालसा के नायक नवाब
कपूर सिंह जी ने गुरमता गुरू आशय अनुसार सँयुक्त विद्येयक प्रस्तुत किया जो सभी
सरदारों ने जयकारों की गूँज में पारित कर दिया। इस पर नादिर को सबक सिखाने की
योजनाएँ बनाई जाने लगीं। लाहौर से दिल्ली तक की शाही सड़क परशियन सेना ने बर्बाद कर
दी थी। अतः उन्होंने लौटते समय गर्मी से बचने के लिए पर्वतों की तलहटी से
अखनूर-स्यालकोट का मार्ग चुना। दिल्ली से चनाब नदी के तट तक किसी ने भी नादिर की
सेना की ओर आँख भी उठाकर नहीं देखा। जब नादिर चनाब पार करने लगा तो उस में बाढ़ आई
हुई थी, अकस्मात् सेना के नदी पार करते समय पुल टूट गया, जिससे नादिर के दो हजार
सैनिक नदी में डूबकर मर गए। जिस कारण नादिर ने नदी किश्तियों द्वारा धीरे धीरे पार
करने की योजना बनाई। इन सब परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए सिक्खों ने अपनी बनाई हुई
योजना अनुसार धावा बोल दिया। उस समय नादिरशाह की सेना दो भागों में बँट चुकी थी।
कुछ नदी पार कर चुके थे और कुछ धीरे-धीरे नदी पार करने का प्रयास कर रहे थे। यही
उपयुक्त समय था। जब नादिरशाह के लूट के माल को लूटा जा सकता था। सिक्खों को नादिर
के पूरे काफिले की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। अतः उन्होंने अपनी अजमाई
हुई चाल द्वारा काम प्रारम्भ कर दिया। पहले उनका एक दल नादिर के काफिले पर टूट पड़ता
जब वे सिक्खों के मुकाबले के लिए आते तो सिक्ख भाग जाते, शत्रु उनका पीछा करता, जब
शत्रु उनके क्षेत्र में पहुँच जाता तो वे अकस्मात वापिस लौटकर पुनः आक्रमण कर देते
और शत्रु को वहीं उलझाए रखते, साथ ही शत्रु को झाँसे में लाकर घेर लेते और वहीं पर
ढ़ेर कर देते। दूसरी ओर शत्रु के काफिले पर दूसरा सिक्खों का दल आक्रमण कर देता, वहाँ
से लड़ाके सैनिक तो पहले वाले सिक्खों के दल का पीछा करने गए हुए होते, जिस कारण इन
सिक्खों के दल को, काफिले को लूटने में कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। रिक्त
स्थान पाकर सिक्खों का दूसरा दल अपने लक्ष्य में पूरी तरह सफल हो जाता। इस प्रकार
सिक्खों ने नादिरशाह की लूटी हुई सम्पत्ति में से बहुत बड़ी धनराशि लूट ली और दूर
जँगलों में छिपा दी अथवा गरीबों और जरूरतमँदों में बाँट दी। सिक्खों की सफलता को
देखते हुए कई स्थानिक लूटरे भी सिक्खों के साथ मिल गए, जिससे सिक्खों की शक्ति बढ़ती
ही चली गई। नादिर शाह के लम्बे काफिले के दोनों ओर सिक्ख थोड़ी दूरी बनाकर चल रहे
थे, जैसे ही उनको कहीं काफिले की कमजोरी का पता चलता, उस समय वे अपनी निश्चित विधि
अनुसार कार्य कर देते। इस अभियान में जस्सा सिंह आहलूवालिया को वे समस्त अबला
महिलाएँ छुड़वाने का कार्यभार सौंपा गया था, जो बलपूर्वक नादिरशाह की सेना ने उनके
परिवारों से छीन ली थी, इन सब अति सुन्दर महिलाओं को उसने अपनी रणनीति से
सफलतापूर्वक छुड़वाकर दिखाया। इन महिलाओं की संख्या 2200 थी। नादिरशाह को गर्व था कि
वह उस समय का महान विजयता है परन्तु उसकी सेना के काफिले को जब रास्ते भर सिक्खों
ने बार बार छापामार युद्ध से लूटा तो वह बेबस होकर यह सब देखता रह गया और कुछ न कर
सका। इस प्रकार उसकी अकड़ चकनाचूर हो गई।