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4. अनिश्चित शान्तिकाल

समस्त सिक्ख जगत् मुगलों द्वारा की गई संधि को एक छल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं समझते थे किन्तु सभी इस समय का लाभ उठाना चाहते थे। अतः नवस्थापित नवाब कपूर सिंह जी ने सभी से विचारविमर्श करके श्री अमृतसर साहिब जी में खालसे का सम्मलेन बुलाया। सभी दूर-दराज के क्षेत्रों में खालसे को एकत्रित होने का निमन्त्रण भेजा गया। सम्मेलन में यह निश्चित किया गया कि हम अपनी तरफ से पूर्णतः शान्ति बनाए रखने का प्रयास करेंगे और किसी प्रकार का उत्पात नहीं करेंगे। जब तक कि शत्रु पक्ष हम पर किसी प्रकार का अन्याय अथवा द्वेष नहीं करता। उस समय उत्साहित युवकों द्वारा अपने-अपने क्षेत्रों में स्वयँमेव दलों का निर्माण किया हुआ था। जिनकी सँख्या लगभग 85 थी। इस सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि सभी जत्थों का विलय एक समूह में किया जाएगा। इस विशाल समूह का नाम रखा गया दल खालसा। सभी जवानों ने दल खालसा का अंग बनना स्वीकार कर लिया। इस पर जवानों का कार्यक्षेत्र और व्यवस्था इत्यादि करने के लिए, दल खालसा के अध्यक्ष नवाब कपूर सिंह जी ने दल को दो प्रमुख भागों में बाँटने की घोषणा की, 40 वर्ष की आयु से अधिक के व्यक्तियों के लिए एक अलग से दल की स्थापना कर दी। इन लोगों को गुरूधामों की सेवा और सिक्खी प्रचार का कार्यक्षेत्र दिया गया और इस दल को नाम दिया गया "बुडढा दल"। यह प्रौढ़ावस्था वाले सिक्ख श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी का जमाना देख चुके थे। अतः वे गुरू मर्यादा इत्यादि से भली भान्ति परिचित थे। युवकों को "तरूण दल" का नाम दिया गया और इनका कार्यक्षेत्र बढ़ाकर उसका बहुत विस्तार कर दिया गया। पहले वे केवल अपने अस्तित्व को बनाए रखने का ही सँग्राम करते रहते थे परन्तु अब उन पर जिम्मेदारियाँ बहुत बढ़ गई थीं। पहली बात उनको निष्काम और निस्वार्थ भाव से परहित के लिए दुष्टों से जूझना था। दूसरा दीन-दुखियों की सेवा भाव से सहायता हेतु सत्ताधारियों पर अँकुश रखना था, जिससे सिक्खी और उसके सदाचार का गौरव बढ़े। शान्तिकाल में तरूण दल की सँख्या दिनो-दिन बढ़ती ही चली गई। अतः लँगर इत्यादि व्यवस्था में कई बार बाधा उत्पन्न होने लगी, इसलिए दल खालसा के अध्यक्ष महोदय सरदार कपूर सिंह जी ने दल को पाँच भागों में विभक्त कर दिया। इनके रहने और प्रशिक्षण स्थल भी अलग-अलग निश्चित कर दिये गए। पहले दल के नेता सरदार दीप सिंह, दूसरे दल के नेता प्रेम सिंह और धनी सिंह जी, तीसरे दल के नेता काहन सिंह और विनोद सिंह जी, चौथे दल के नेता सोंध सिंह जी और पाँचवे दल के नेता वीर सिंह और अमर सिंह जी थे। इन पाँचों दल को अमृतसर के विभिन्न क्षेत्र में क्रमशः रामसर, विवेकसर, संतोखसर, लक्ष्मणसर और कौलसर में नवीन छावनियाँ बनाकर तैनात कर दिया गया। इन पाँचों जत्थों में से प्रत्येक जत्थे के पास तेरह सौ से दो हजार तक जवान हर समय तैयार रहने लगे। यह सभी जवान आपस में मिलजुल कर रहते और आने वाले कठिन समय के लिए समय रहते प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। इन सभी दलों का नेतृत्त्व (कमाण्ड) नवाब कपूर सिंह के हाथ में था, जिनका सभी सिक्ख बहुत आदर करते थे। इन जवानों का खर्च जक्रिया खान द्वारा दी गई जागीर से चल रहा था। इस प्रकार सभी जवानों पर नियमित सैनिक अनुशासन की नियमावली लागू कर दी गई। जैसे ही पँजाब के राजयपाल जक्रिया खान को सिक्खों की बढ़ती हुई शक्ति की सूचना मिली तो वह व्याकुल हो गया। वास्तव में तो वह चाहता था कि सिक्ख लोभ और ऐश्वर्य के जीवन जीने के चक्र में लड़ने-मरने का कठोर जीवन त्याग दें और धीरे-धीरे उनकी स्वाभिमानी विचारधारा का पतन हो जाए, जिससे मुगल उन पर निरँकुश शासन कर सकें, परन्तु हुआ बिल्कुल उलट। सिक्ख और सँगठित हो गए और उन्होंने अपनी बिखरी हुई शक्ति को एकता के सूत्र में बाँध लिया। सिक्खों की एकता और उनका नियमित सैनिक प्रशिक्षण, वास्तव में सत्ताधारियों के लिए खतरे की घण्0टी था। अतः प्रशासन को अपनी पुरानी नीति पर पुनः विचार करने की आवश्यकता पड़ गई। अन्त में प्रशासन ने खालसे नवाबी तथा जागीर वापस लेने का निर्णय कर लिया। सन् 1735 ईस्वी की गर्मियों की ऋतु में एक दिन अकस्मात् मुगल सेना ने सिक्खों को दी गई जागीर पर आक्रमण कर दिया और उसे जब्त करने की घोषणा कर दी। इसकी प्रतिक्रिया में दल खालसा ने स्वतन्त्रता सँग्राम की घोषणा करके उत्तर दिया। इस समय उनके पाँचों तरूण दलों की लगभग 12,000 सँख्या थी, जो हर दृष्टि से पँथ के हितों पर मन मिटने के लिए तैयार थे। दल खालसा के अध्यक्ष नवाब कपूर सिंह जी ने अपने जवानों को सम्बोधन करते हुए कहा कि अब समय आ गया है, हमें इस छोटी सी जागीर पर सन्तुष्ट न होकर विशाल साम्राज्य की स्थापना का प्रयास करना है। यही वरदान हमें हमारे गुरूदेव जी ने दिया था कि खालसा कभी परतन्त्र नहीं रहेगा। वे स्वयँ अपने भाग्य निर्माता होंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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