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3. जस्सा सिंघ आहलुवालिया को प्रशिक्षण देना

जस्सा सिंघ आहलुवालिया की आयु उस समय लगभग 12 वर्ष की थी। इतनी छोटी अवस्था में उसके नियमित जीवन सुशील स्वभाव, सेवाभाव इत्यादि शुभ गुण देखकर सरदार कपूर सिंघ जी अत्यन्त प्रभावित हुए। एक दिन उन्होंने बाघ सिंह और उनकी बहन से जस्सा सिंह को पँथ की सेवा हेतु माँग लिया। सरदार कपूर सिंह जी का आग्रह, वे टाल नहीं सके। अतः उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक निवेदन किया कि ठीक है, हम अपने इस लाल को आपकी झोली शरण में डालते हैं। अब आप इसे अपना ही पुत्र मानें। वहाँ उपस्थित संगत ने तुरन्त ‘सत श्री अकाल’ की जय जयकार की और श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी के समक्ष अरदास (प्रार्थना) की। उसी दिन से जस्सा सिंह की ख्याति सरदार कपूर सिंह के सुपुत्र में होने लगी। सरदार कपूर सिंह जी ने जस्सा सिंह को घुड़सवारी, तलवार चलाने, नेजाबाजी और धनुर्विधा के प्रशिक्षण हेतु युद्धकला में निपुण व्यक्तियों के सुपुर्द किया। उन्होंने उसे युद्ध के दाँव-पेंच भी सिखा दिए। इस प्रकार नियमित रूप से कसरत करने के कारण जस्सा सिंह एक बलिष्ठ युवक बन गया। उसकी भुजाओं में इतना बल आ गया कि वह 16 सेर वजन की गदा हाथ में थामकर इस प्रकार घूमाता, मानों वह एक हल्का सा तिनका है। कुछ वर्षों पश्चात् सरदार कपूर सिंह जी ने स्वयँ पाँच प्यारों में शामिल होकर जस्सा सिंह को ‘खण्डे का अमृत छकाया’ और खालसे की रहित मर्यादा में दृढ़ रहने का आदेश दिया। इस प्रकार जस्सा सिंह सिक्खी में परिपक्व होता चला गया। कहीं जस्सा सिंह को अपनी उपलब्धियों पर अभियान न हो जाए, इसलिए कपूर सिंह जी बहुत सतर्कता से उसे नम्रता का पाठ पढ़ाते और उसे इसके लिए कुछ ऐसी सेवाएँ करने को कहते, जो निम्न स्तर की होती। पानी ढोना व लीद उठाना इत्यादि कार्य उसे सौंपे जाते। आज्ञाकारी जस्सा सिंह भी प्रसन्नचित भाव से अपने सभी उत्तरदायित्वों का पालना करता। इन कामों से जस्सा सिंह के हृदय में भ्रातत्व की भावना उत्पन्न हो गई। उसकी दृष्टि में कोई छोटा बड़ा नहीं रहा। सरदार कपूर सिंह जी की अनुशासनप्रियता के कारण जस्सा सिंह बड़ा कर्त्तव्यपरायण सिद्ध हुआ। नवाब कपूर सिंह जी के साथ सदा रहने के कारण जस्सा सिंह को इस बात का ज्ञान हो गया कि सिक्ख जत्थों का निर्माण किस ढँग से किया जाता है और इनकी सँख्या कम करने के क्या कारण हैं। जब खालसा पँथ में दो दल स्थापित हो गए तो वह तब भी नवाब साहिब के बुड्ढा दल के साथ ही जुड़े रहे। इस प्रतिक्रिया के समय जस्सा सिंह को दीवान दरबारा सिंह जी के अतिरिक्त संगत सिंह खजाँची, हरी सिंह, देवा सिंह, बदन सिंह, केहर सिंह, बज्जर सिंह, घनघोर सिंह और अमर सिंह जैसे वयोवृद्ध, मुख्य सिक्ख नेताओं के सम्पर्क में आने का अवसर मिला। इन लोगों के साथ रहने से उसे सिक्खों के राजनीतिक एँव सामाजिक लक्ष्यों का ज्ञान होना स्वाभाविक सी बात थी। जस्सा सिंह को अब तक इस बात का पूर्ण ज्ञान हो चुका था कि सिक्ख धर्म ऐसी धारणाओं का प्रतीक है, जो एकमात्र मानवीय भाई चारे की स्थापना में सँलग्न हों। यह भ्रातवाद एकदम नैतिक सिद्धान्तों पर स्थित हो। इन परिस्थितियों में न तो कोई किसी को डराये और न ही दूसरों से भयभीत हो, सामाजिक स्तर पर किसी प्रकार का भेदभाव न हो। इससे ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान एवँ निराकार रूप पर अटूट भरोसा हो तथा प्रत्येक प्राणी मात्र को उस दिव्य ज्योति का अँश समझने की सदभावना हो। ऐसे समाज के निर्माण हेतु राजनैतिक शक्ति की प्राप्ति अति आवश्यक शर्त थी। युवक जस्सा सिंह ने इस बात का अनुभव कर लिया था। युवक जस्सा सिंह के समक्ष तत्कालीन मुगल साम्राज्य सिक्ख पँथ के समूल नाश के लिए कमर कसे खड़ा था। यह चुनौति जस्सा सिंह ने स्वीकार की और दृढ़ निश्चय के साथ अकालपुरूष की ओट लेकर लक्ष्य की पूर्ति हेतु लम्बे सँग्राम में कूद पड़े।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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