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2. पहले सिक्ख नवाब

सम्राट मुहम्मद शाह रँगीला ने पँजाब के राज्यपाल जक्रिया खान को कूटनीति के अन्तर्गत किसी भी विधी से सिक्खों को वश में करने का परामश लिख भेजा, क्योंकि अब्दुलसमद खान की तरह जक्रिया खान भी सिक्खों को बाहुबल से अपने अधिकार में लाने में असफल रहा था। इस पर जक्रिया खान ने सिक्ख सरकारी ठेकेदार सरदार सुबेग सिंघ को अपने विश्वास में लिया और उसे अपना वकील बनाकर सिक्खों को एक संधि का विशेष मसौदा भेजा जिसके अन्तर्गत समस्त सिक्ख पँजाब में कहीं भी खुले रूप में विचरण करते हुए अपने गुरूधामों की देखरेख व सेवा सम्भाल कर सकेंगे और उनके नेता को नवाब की उपाधि प्रदान की जाएगी। इसके साथ दीयालपुर, कँगनवाल और मवाल क्षेत्र जिनकी आय एक लाख रूपये वार्षिक है, जागीर रूप में दिये जाते हैं। बदले में सिक्ख लोग प्रदेश में शान्ति बनाए रखेंगे और किसी प्रकार का उत्पात नहीं करेंगे। जब ठेकेदार सरदार सुबेग सिंघ जी सशस्त्र सिंघों के जत्थेदारों को खोजते हुए श्री अमतृसर साहिब जी पहुँचे। यहाँ से उन्होंने सभी सिक्खों के बिखरे हुए जत्थों को श्री अमतृसर साहिब जी एकत्रित होने का निमँत्रण भेजा। वहीं सुबेग सिंह जी ने खालसे के दरबार में प्रशासन की तरफ से प्रस्ताव रखा और अपनी ओर से विनती की कि समस्त खालसा जी को अब शान्ति बनाये रखने के लिए एक लाख की जागीर व नवाबी की उपाधि स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस समय खालसा जी के विशेष दरबार में कुछ विशिष्ट मान्यवर व्यक्ति विराजमान थे। जत्थेदार दरबारा सिंघ जी, संगत सिंह खजानचीं, हरी सिंह लाँगरी (भण्डारा अध्यक्ष), भगत सिंह मोदी, बुडढा सिंह देसी, हरदित्त सिंह, गरजा सिंह, सजन सिंह, ईशर सिंह, ज्ञान सिंह, साधू सिंह व देव सिंह इत्यादि सुशोभित थे। सभी ने बहुत गम्भीरतापूर्वक इस प्रस्ताव पर विचार किया, परन्तु सभी एकमत थे कि प्रशासन पर दूरगामी भरोसा नहीं किया जा सकता और जत्थेदार दरबारासिंह जी का कहना था कि हम किसी से भीख में जागीरी का पट्टा क्यों लें। जबकि हमें हमारे गुरूदेव वरदान दे गए हैं कि खालसे का तेज प्रताप बढ़ता ही चला जाएगा और खालसा समस्त लोगों के हृदय पर शासन करेगा और वह दिन दूर नहीं जब सत्ता भी हमारे हाथ में ही होगी। इस प्रकार उन्होंने गुरूदेव के शब्द दोहरायेः राज करेगा खालसा, आकी रहे न कोय। इसके अतिरिक्त उन्होंने कहा कि गुरूदेव का कथन हैः कोई किसी को राज न दे है, जो लेहै निज बल से ले है। यह वक्तव्य सुनते ही सभी सरदार एक मत हो गए और नवाबी का पट्टा स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर सरकारी वकील सरदार सुबेग सिंह ने कहा कि खालसा जी यदि कोई समय आपको शान्ति का नसीब होता है तो आप इसे अपने हित में प्रयोग कर सकते हैं और आप अपना पुनर्गठन करके नई परिस्थितियों के अनुकूल अपने आप को ढाल सकते हैँ ऐसा करने में शान्तिकाल सहायक बनेगा और कोई बाधा न रहेगी। भले ही आप स्वयँ नवाबी स्वीकार न करें। आप अपने किसी सेवक को यह उपाधि देकर कृतार्थ (निवाजें) करे। परन्तु घर में आई खुशियों के शुभ अवसर को ठुकराना नहीं चाहिए। क्या पता, पँथ का इसी में भला हो ? इस विचार ने खालसा जी को पुनः इस प्रस्ताव पर विचार करना पड़ गया। उस समय नवाबी की उपाधि का पट्टा कोई स्वीकार करने के लिए तैयार न था। अन्त में उन्होंने अपने जत्थे के एक सेवक को यह पट्टा स्वीकार करने को कहा। उस व्यक्ति का नाम सरदार कपूर सिंह था, यह उस समय इस सम्मेलन में विराजमान सभी संगत को पँखा करके उन्हें गर्मी से राहत दिलवा रहा था। सेवादार कपूर सिंह निष्काम सेवक था। उसने समस्त सिक्ख पँथ से आग्रह किया कि वह तुच्छ व्यक्ति इस उपाधि के योग्य नहीं, उसे तो केवल सेवा ही मिली रहने दीजिए। परन्तु उसकी विनम्रता को देखकर वहाँ उपस्थित सज्जनों ने उनको खालसा पँथ की तरफ से आदेश दिया कि वह नवाबी की उपाधि स्वीकार कर ले। इस पर सरदार कपूर सिंह जी ने कहा कि ‘मैं आपके आदेश की उलँघना नहीं कर सकता, परन्तु यह मैं तब स्वीकार करूँगा, जब नवाबी वाले पत्र (खिलत) को पाँच प्यारे अपने चरणों से स्पर्श करके मुझे देंगे। ऐसा ही किया गया। जैकारों की गूँज में कपूर सिंघ सेवादार से नवाब बन गए, इस पर सरदार कपूर सिंह जी ने अपने गले में ‘परना’ डालकर फिर से पँथ के आगे विनती की कि मुझे आप उन सेवाओं से वँचित नहीं करेंगे जो मैं अब तक करता आया हूँ, जैसे घोड़ों की लीद उठाना, पानी ढोना इत्यादि। खालसा जी ने सहर्ष यह बात स्वीकार कर ली।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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