2. मीर मन्नू और सिक्ख-2
जिसका उत्तर उसी प्रकार मिला कि यदि आप हमारा साथ देना चाहते हो तो आपका स्वागत है।
इस प्रकार सरदार जस्सा सिंह इचोगिल निर्धारित समय रसद तथा रण सामग्री लेकर रामरोहणी
में प्रवेश कर गया। जिससे हताश हो चुके अन्दर के सिंघों में फिर से नवजीवन का सँचार
हो गया। यह देखकर कि रामरोहणी की घेराबन्दी और लम्बी खिंच सकती है, मुगल सेना चिन्ता
में पड़ गई कि तभी समाचार मिला कि अफगानिस्तान का बादशाह अहमदशाह अब्दाली भारत पर
दूसरा आक्रमण कर चुका है, वह कुछ दिनों में लाहौर पहुँचने ही वाला है तो इस पर
दीवान कौड़ामल ने मीर मन्नू को सुझाव दिया कि पहले बाहरी शत्रु से निपटना चाहिए। अतः
यहाँ कि घेराबन्दी हटाकर सिक्खों से नयी संधि कर लेनी चाहिए। समय की नज़ाकल को देखते
हुए मीर मन्नू ने ऐसा ही किया। इन दिनों मीर मन्नू को दो कठिनाइयों का सामना करना
पड़ रहा था। एक तो दिल्ली की मुगल सरकार की शह और सहायता से लाहौर के पुराने
राज्यपाल शाह निवाज खान ने मुलतान पर अधिकार कर लिया और वहाँ से मीर मन्नू के
अधिकार क्षेत्र को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही वह लाहौर नगर की ओर बढ़ने की तैयारी
करने लगा था। दूसरा, अहमदशाह अब्दाली द्वारा पुनः भारत पर आक्रमण करने के समाचार
मिलने लगे थे। ये दोनों ही बहुत भयँकर विपत्तियाँ थीं। इस विषय पर मीर मन्नू ने
दीवान कौड़ामल और अन्य अधिकारियों से परामर्श किया। कौड़ामल ने विचार दिया कि वह स्वयँ
तो अहमदशाह दुर्रानी के टक्कर लेने जाए और मैं (कौड़ामल) शाह निवाज के विरूद्ध
मुलतान जाता हूँ। एक शुभ अवसर देखकर कौड़ामल ने यह बात भी मनवा ली कि सिक्खों को पुनः
जक्रिया खान वाली जागीर देकर अपने साथ कर लिया जाए। कूटनीति को मद्देनजर रखकर मीर
मन्नू ने परगना पट्टी के मामले का चौथा भाग श्री दरबार साहिब जी, अमृतसर के नाम
जागीर लिख दी और गुरू का चक वाले हर गाँवों का जब्त हो चुका लगान भी जारी करवा लिया।
इस प्रकार माघ 1803 विक्रमी नवम्बर, 1748 को रामरोहणी का घेरा उठा लिया गया।
मीर मन्नू द्वारा सिक्ख जनता का सँहार
अहमद शाह के तीसरे आक्रमण के परिणामस्वरूप, सैद्धान्तिक रूप में अब पँजाब पर
दुर्रानियों का साम्राज्य स्थापित हो गया किन्तु मीर मन्नू इस बात का इच्छुक था कि
यदि सम्भव हो सके तो वह दिल्ली अथवा काबुल को हटाकर पूर्ण स्वतन्त्र सत्ता प्राप्त
कर ले। अब उसका सिक्खों के बिना कोई प्रतिद्वन्द्वी न था। वह सिक्खों की बढ़ती हुई
शक्ति को अपने लिए चुनौति समझने लगा। इस समय सिक्ख भी सावधान थे। उन्हें भी अहसास
था कि मीर मन्नू के सत्ता हठ रहते वे इस प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित नहीं कर सकते।
अतः मीर मन्नू ने प्रशासक होने के नाते सिक्खों की शक्ति को सदा के लिए समाप्त करने
का अभियान चलाना प्रारम्भ कर दिया। सर्वप्रथम बिना किसी कारण सिक्खों को दी गई
जागीर जब्त कर ली। सिक्खों ने उसकी नीति को समझा और अपनी सुरक्षा के प्रबन्धों में
ध्यान देने लगे। मीर मन्नू ने अपनी स्मस्त सैनिक शक्ति सिक्खों के दमन के लिए झौंक
दी। अतः गश्ती फौजी टुकड़ियों का कई स्थानों पर सिक्खों के जत्थों के साथ सामना हुआ।
विवशता में सिक्खों ने श्री अमृतसर नगर त्याग दिया और ‘राम रोहणी’ किले में शरण ली
परन्तु वहाँ साधनों के अभाव के कारण 900 सिक्ख जवान रणक्षेत्र में रहे, जिससे किला
शत्रु के हाथ आ गया और उसे उन्होंने धवस्त कर दिया। इस पर सिक्खों ने पहले की तरह
फिर से वनों और दूर-दराज के क्षेत्र झीलों, मण्ड, विहदणों अथवा पर्वतों की शरण ली
परन्तु जनसाधारण जो शान्तिप्रिय नागरिक थे, शत्रु के चँगुल में फँसने लगे। इस बार
अत्याचारों की अति कर दी गई। पहले अभियानों में केवल युवा पुरूषों को ही निशाना
बनाया जाता था परन्तु मीर मन्नू ने नन्हें बच्चों, महिलाओं और वृद्ध लोगों को भी नहीं
बख्शा। सिक्ख लोग इस प्रकार के नरसँहार पहले भी कई बार देख चुके थे परन्तु उन
नरसँहारों में और इस नरसँहार में अन्तर यह था कि इस बार उन समस्त प्राणी मात्र को
नहीं बख्शा जाता था, जिनके साथ सिक्ख शब्द जुड़ जाता था, भले ही वह किसी भी आयु का
नर अथवा मादा हो, दोषी अथवा निर्दोष की तो बात ही अलग रह जाती थी।
मुगल इतिहास अनुसार उन्होंने जो सिक्खों के नरसँहार किये,
उनकी तिथियाँ इस प्रकार हैः
1. पहला बहादुरशाह के शासनकाल सन् 1710 से 1712 तक।
2. दूसरा बादशाह फर्रूखसीयर तथा नवाब अब्दुल समदखान द्वारा, समय सन् 1715 से 1719
तक।
3. तीसरा लाहौर के नवाब जक्रिया खान द्वारा सन् 1728 से 1735 तक।
4. चौथा नरसँहार उसके शासनकाल में पुनः जागीर जब्ती के बाद किया गया, सन् 1739 से
1745 तक, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो गई।
5. पाँचवा नरसँहार यहिया खान के कार्यकाल में सन् 1745 से 1746 तक, जब तक उसके भाई
शाह निवाज ने लाहौर से खदेड़ कर भगा नहीं दिया।
6. छठा और अन्तिम नरसँहार का आहवान तो सन् 1748 ईस्वी में कर दिया गया, मीर मन्नू
के आदेश से, परन्तु कौड़ामल की उपस्थिति के कारण यह लागू नहीं हो पाया। जब कौड़ामल
शहीद हो गया तो मीर मन्नू ने उसी आदेश को पुनः सन् 1752 से लागू कर दिया ? इसी
सिक्खों के कत्लेआम के अभियान में वह एक दुर्घटना में 1753 ईस्वी में मारा गया।
मार्च, 1752 ईस्वी में पुनः मीर मन्नू ने वही आदेश लागू करने को
अपने प्रशासन को कहा। गाँवों के चौधरियों तथा पहाड़ी राजाओं के नाम कठोर आग्रहपूर्ण
आदेश भेजे गए कि सिक्खों की हत्या के लिए गश्ती फौजी टुकड़ियों की सहायता की जाए। जब
दल खालसा के जत्थेदार मीर मन्नू की सशस्त्र सैनिक टुकड़ियों से टक्कर लेते हुए श्री
आनन्दपुर साहिब जी चले गए तो फिर मीर मन्नू ने साधारण शान्तिप्रिय सिक्ख नागरिकों
को घरों में आ दबोचा। उसने इस बार करूरता की सभी सीमाएँ लाँघ दी। उसकी गश्ती फौजी
टुकड़ियों ने शिकारी कुत्तों की तरह गाँव गाँव से सिक्ख स्त्रियों और बच्चों को पकड़
लिया और लाहौर ले आए। इन निर्दोष स्त्रियों को लाहौर की घोड़मण्डी में बँद कर दिया
गया। उनमें से प्रति एक को प्रतिदिन पीसने के लिए सवा मन अनाज दिया जाता और भोजन के
लिए पतली सी एक रोटी। करूर सिपाही कई बार इन्हें पीने के पानी के लिए तरसाते और
इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश करते। सिंघनियों के इन्कार करने पर वे इनकी आँखों
के समक्ष उनके नन्हें बालकों के टुकड़े-टुकड़े करके उनके आँचल में फैंक देते।