8. गुरू जी की ग्वालियर से श्री
अमृतसर साहिब जी में वापसी
श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी को मँत्री वजीर खान ग्वालियर के किले से लौटा लाया।
उसने उनको फिर से यमुना नदी के तट पर मजनू दरवेश की समाधि के निकट ही ठहराया, अब
उनके साथ वे 52 राजा भी थे जो ग्वालियर के किले से गुरू जी ने रिहा करवाये थे।
बादशाह को गुरू जी के दिल्ली पहुँचने का समाचार दिया गया। अगले दिन भेंट के लिए
बादशाह ने उन्हें किले में बुलाया इस बार बादशाह ने गुरू जी का भव्य स्वागत किया और
उनके कहने पर सभी राजाओं से अच्छे आचरण का वचन लेकर उनके राज्यों में भेज दिया गया।
जब उसने गुरू जी से कुशल क्षेम पूछी तो गुरू जी ने वह पत्र जो चन्दूशाह ने किलेदार
हरिदास को लिखा था बादशाह के सामने रख दिया। चन्दू की कुटलता के विषय में वह पहले
भी मँत्री वजीर खान व साईं मीया मीर जी से सुन चुका था किन्तु अब उसके हाथ एक पक्का
सबूत लगा था। उसने चन्दू को अपराधी जानकर उसे गुरू जी के हाथों में सौंप दिया। इस
चन्दू ने कहा मुझे क्षमा करें मैं आपके पिता का हत्यारा नहीं हूं। इस पर गुरू जी ने
कहा: अपराधी का निर्णय तो अब अल्लाह के दरबार में ही होगा। उन दिनों न्याय विधान के
अनुसार हत्यारे को प्रतिद्वँदी पक्ष को सौंप दिया जाता था। सिक्खो ने जल्दी से
चन्दूशाह को अपने कब्जे में ले लिया और उसे श्री अमृतसर साहिब, कैदी के रूप में भेज
दिया। बादशाह से विदा लेकर गुरू जी ने लौटने का कार्यक्रम बताया इस पर बादशाह ने
गुरू जी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि मैं पर्यटन के लिए काशमीर जा रहा हूं कृप्या आप
कुछ दिन और रूकें हम इक्टठे ही चलेंगे आपके साथ से समय अच्छा कटेगा। गुरू जी ने कहा
ठीक है। इस प्रकार आध्यात्मिक विचारों को श्रवण करने का आँनद उठाते हुए बादशाह और
गुरू जी मँजिले तय करते हुये व्यासा नदी पार करके श्री गोइँदवाल साहिब पहुँचे। यह
स्थल पूर्व गुरूजनों का था इसलिए गुरू जी वहाँ ठहर गये और बादशाह से कहा अब हम यहाँ
से रास्ता बदलकर अपने नगर श्री अमृतसर साहिब जी जायेंगे। आपने तो काशमीर को जाना है
अतः आप लाहौर जायेंगे।
किन्तु बादशाह ने कहा आपसे बिछुड़ने का मन तो नहीं कर रहा और मेरा
मन आप जी द्वार निर्मित नगर और वहाँ के भवन इत्यादि देखने का विचार है। सम्राट की
इच्छा सुनकर गुरू जी ने उसे अपने यहाँ पर आने का न्यौता दिया। बादशाह के स्वागत के
लिए गुरू जी का काफिला एक दिन पहले श्री गोइँदवाल साहिब से श्री अमृतसर साहिब
प्रस्थान कर गया। जब गुरू जी श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचे तो उस दिन दिवाली का पर्व
था। गुरू जी के श्री अमृतसर साहिब में पहुँचने पर समस्त नगर में दीपमाला की गई और
मिठाईयाँ बाँटी गई। दो दिन के अन्तर में बादशाह भी अपने काफिले सहित पहुँच गया। गुरू
जी ने उसका भव्य स्वागत किया। सम्राट स्थानीय भवन कला देखकर अति प्रसन्न हुए उसने
परम्परा अनुसार श्री दरबार साहिब की परिक्रमा की और हरिमन्दिर साहिब में बैठकर
गुरूघर के कीर्तनियों से गुरूबाणी श्रवण की। इस अवधि में उसका मन स्थित और शान्त हो
गया वह एक अगम्य वातावरण का अनुभव करने लगा जहाँ ईर्ष्या, तृष्णा, द्वेतवाद था ही
नहीं, वहाँ थी तो केवल आध्यात्मिक उन्नति रहस्यमय वायुमण्डल, जिसमें भ्रातृत्व के
अतिरक्त कुछ न था। सुखद अनुभूतियों का आँनद प्राप्त करके सम्राट ने इच्छा प्रकट की
कि उसे माता जी से मिलवाया जाये। माता गँगा जी से भेंट होने पर सम्राट ने पाँच सौ
मोहरे अर्पित की और नतमस्तक होके प्रणाम किया।
साथ में क्षमा याचना की: कि उनके पति की हत्या में उसका कोई हाथ
नहीं। उसने तो केवल दुष्टों व ईर्ष्यालुयों के चँगुल में फँसकर गुरूबाणी की जाँच के
आदेश दिये थे। इस पर माता जी ने कहा: इस बात का निर्णय तो उस सच्ची दरगाह में होगा
ओर वह मोहरे गरीबों में वितरण करवा दी। जहाँगीर श्री अमृतसर साहिब जी से लाहौर
प्रस्थान कर गया। इसी बीच चन्दूशाह को सिक्खों ने गुरू जी की दृष्टि से बचाकर उसे
लाहौर भेज दिया उनका विचार था कि गुरू जी दयालु, कृपालु स्वभाव के हैं, कही इसे
क्षमा न कर दें। दूसरा वे चाहते थे कि चन्दूशाह के चेहरे पर कालिक पोत कर उसे वहीं
घुमाया जाये जहां इसने कुकर्म किया था। चन्दू अपने किये पर पश्चाताप कर रहा था, जिस
कारण वह अन्दर से टूट गया। अपमान और ग्लानि के कारण अधमरा सा हो गया। एक दिन उसे
सिक्ख, कैदी के रूप में लाहौर के बाजार में घुमा रहे थे कि एक भड़भुजे वाले ने उसके
सिर पर डंडा दे मारा। जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। चन्दूशाह तो मर गया परन्तु वह
विरासत में नफरत तथा ईर्ष्या छोड़ गया। चन्दूशाह का पुत्र कर्मचन्द भी बाप की तरह
गुरू जी से शत्रुता की भावना रखता था। वह श्री गुरू हरिगोन्दि साहिब जी के हाथों
सिक्ख इतिहास के दूसरे युद्ध में मारा गया।