जब दिल्ली की संगत को यह ज्ञात हुआ कि श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने विशालकाय
शेर को उसकी माँद में से निकालकर सदा की नींद सुला दिया है तो वे गुरू जी के दर्शनों
को उमड़ पड़े। इस बीच सम्राट ने मँत्री वजीर खान के हाथ गुरू जी को सँदेश भेजा कि
कृप्या आप हमारे साथ आगरा चलें, रास्ते में शिकार खेलने का आनन्द लेंगे। गरू जी ने
यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। इस प्रकार सम्राट अपने शाही साजो सामान लेकर आगरा
के लिए चल पड़ा। पीछे-पीछे गुरू जी ने भी अपना शिविर हटाकर साथ चलना शुरू कर दिया।
रास्तें में कई रमणीक स्थानों पर पड़ाव डाले गये और शिकार खेला गया। इस बीच सम्राट
ने अनुभव किया कि श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी को उनके अनुयायी बहुत ही सम्मान देते
हैं और उन्हें सच्चे पातशाह कहकर सम्बोधन करते हैं। इस बात को लेकर वह जिज्ञासा में
पड़ गया कि इसका क्या कारण हो सकता है ? उसने कोतुहलवश समय मिलने पर इस प्रश्न का
उत्तर गुरू जी से पूछा। उत्तर में गुरू जी ने कहाः हमने तो किसी "सिक्ख" से यह "नहीं
कहा" कि वो हमें सच्चे पातशाह कहें किन्तु यह उनकी अपनी श्रद्धा है। वे श्रद्धावश
ऐसा कहते हैं तो इसमें हम क्या कर सकते हैं। इस उत्तर से सम्राट सन्तुष्ट नहीं हुआ।
जहाँगीर कहने लगाः तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम झूठे पातशाह और आप सच्चे पातशाह ?
उत्तर में गुरूदेव जी ने कहाः इस प्रश्न का उत्तर हम दे सकते हैं किन्तु उससे आपका
सँशय निवृत नहीं होगा। आप धैर्य रखें समय आयेगा तो आपको इस बात का उत्तर सहज में
स्वयँ ही मिल जायेगा। सम्राट ने कहाः ठीक है हम प्रतीक्षा करेंगे।
कुछ ही दिनों में शाही काफिला आगरा नगर के निकट पहुँच गया। इस
काफिले में गुरू जी का अलग शिविर लगाया गया था। इस पार शिविरों के निकट एक गाँव था।
उन लोगों को जब मालूम हुआ कि इन शिविरों में एक श्री गुरू नानक देव जी के
उत्तराधिकारी श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी का भी शिविर है तो संगत गुरू जी के
दर्शनों के लिए आने लगी। दोपहर का समय था, कुछ गर्मी थी। सभी कुछ समय के लिए भोजन
उपरान्त विश्राम कर रहे थे कि एक गरीब श्रमिक सिर पर घास की गाँठ उठाये वहाँ चला आया।
और वहाँ खड़े सन्तरियों से पूछने लगा: मेरे सच्चे पातशाह का तम्बू कौन सा है ? सन्तरी
उसकी बात को समझा नहीं, वह उसे भगाने के विचार से डाँटने लगा। वह ऊँचा स्वर जहाँगीर
बादशाह ने तम्बू में सुन लिया। सिक्ख उस सन्तरी से मिन्नत कर रहा था, मुझे दर्शनों
के लिए जाने दो। मैं बहुत दूर से आया हूं। मैंने सच्चे पातशाह के दर्शन करने हैं।
किन्तु सन्तरी मान ही नहीं रहा था। इस पर जहाँगीर ने सन्तरी को आवाज लगाकर कहा: इसे
अन्दर आने दो।सिक्ख तम्बू के अन्दर पहुँचा। उसने कभी पहले श्री गुरू हरगोबिन्द
साहिब जी को नहीं देखा था।
उसने बादशाह को गुरू जी समझकर वह घास की गाँठ भेंट में रख दी और
दो पैसे आगे रखकर मस्तक झुका दिया। और विनती करने लगा: कि हे गुरू जी आप कृपया मुझ
गरीब की यह तुच्द भेंट स्वीकार करें और मुझे इस भवसागर में आवागमन से मुक्त करें।
अब बादशाह चक्कर में फँस गया कि वह इस सिक्ख की माँग को कैसे पूरा करे क्योंकि वह
तो भवसागर के आवागमन में स्वयँ फँसा हुआ है। उसने सिक्ख को फुसलाने के विचार से कहा:
कि हे सिक्ख आप कोई और वस्तु माँग लें जैसे हीरे-मोती, जमीन-राज्य अथवा सोना, चाँदी
इत्यादि, मैं वह तो दे सकता हूं, परन्तु मेरे पास मोक्ष नहीं है। यह सुनते ही सिक्ख
सर्तक हुआ। उसने पूछा: आप छठवें गुरू श्री हरिगोबिन्द साहिब जी नहीं हैं ? उत्तर
में बादशाह ने कहा: नहीं, उनका तम्बू कुछ दूरी पर वह सामने है। यह सुनते ही उस
सिक्ख ने वह धाँस की गाँठ व ताँबे का सिक्का वहाँ से उठा लिया। इस पर जहाँगीर ने कहा:
कि यह तो मुझे देते जाओ, इसके बदले कुछ धन-सम्पत्ति माँग लो, किन्तु वह सिक्ख अडिग
रहा। वह जल्दी से वहाँ से निकलकर गुरू जी के शिविर में पहुँचा। बादशाह के दिल में
जिज्ञासा उत्पन्न हुई, वह सोचन लगा कि चलो देखते हैं, इसे इसके गुरू कैसे कृर्ताथ
करते हैं। सिक्ख पूछता हुआ गुरू जी के तम्बू में पहुँचा, उस समय गुरू जी आसन पर
विराजमान थे। उसने उसी प्रकार पहले वह घास की गाँठ फिर वही सिक्के भेंट किया। और
मस्तिष्क झुकाकर उसने यह निवेदन किया: कि हे गुरू जी ! मुझ नाचीज के जन्म-मरण का
निवारण करें। तभी गुरू जी ने खड़े होकर उस सिक्ख को सीने से लगाया। और उसे साँत्वना
देते हुए कहा: हे सिक्ख तुम्हारी श्रद्धा रँग लाई है। आपको अब पुर्नजन्म नहीं लेना
होगा, अब आप प्रभु चरणों में स्वीकार्य हुए। इस सिक्ख ने कहा: हे गुरू जी ! मैं पहले
"भूल से बादशाह के तम्बू में" चला गया था, वह मुझे बहला-फुसला रहा था, किन्तु मैं
उसकी बातों में नहीं आया।
यह सब दृश्य बादशाह छिपकर देख रहा था। इसके पश्चात उसके मन का
सँशय निवृत हो गया कि सच्चा पातशाह कौन है ?