श्री गुरू हरिगोविन्द साहब के पाँच पुत्र थे किन्तु दो पुत्रों ने स्वेच्छा से योग
बल द्वारा शरीर त्याग दिया था। आपके सबसे छोटे पुत्र त्यागमल, जिसका नाम बदलकर आपने
तेग बहादर रखा था, बहुत ही योग्य थे किन्तु आप तो विद्याता की इच्छा को मद्देनजर
रखके अपने छोटे पौत्र हरिराय को बहुत प्यार करते और उनके प्रशिक्षण पर विशेष बल दे
रहे थे। आपकी दृष्टि में वही सर्वगुण सम्पन्न थे और वही गुरू नानक की गद्दी के
उत्तराधिकारी बनने की योग्यता रखते थे। अतः आपने एक दिन यह निर्णय समस्त संगत के
सामने रख दिया। संगत में से बहुत से निकटवर्तियों ने कहा: आप तो बिल्कुल स्वस्थ
हैं, फिर यह निर्णय कैसा। किन्तु गुरूदेव जी ने उत्तर दिया: प्रभु इच्छा अनुसार वह
समय आ गया है, जब हमने इस मानव शरीर को त्याग कर प्रभु चरणों में विलीन होना है।
आपने निकट के क्षेत्र में बसे सभी अनुयायियों को संदेश भेज दिया कि हमने अपने
उत्तराधिकारी की नियुक्ति करनी है, अतः समय अनुसार संगत इक्ट्ठी हो ? संगत के
एकत्रित होने पर तीन दिन हरियश में कीर्तन होता रहा, समाप्ति पर आपने पौत्र हरिराय
जी को अपने सिँहासन पर विराजमान किया और उनकी परिक्रमा की, इसके साथ ही एक थाल में
गुरू परम्परा अनुसार कुछ सामग्री उनको भेंट की। बाबा बुड्ढा जी के सुपुत्र श्री भाना
जी को आदेश दिया कि वह हरिराय जी को विधिवत् केसर का तिलक लगाएँ। जैसे ही सभी गुरू
प्रथा सम्पन्न हुई, श्री गुरू हरिगोविन्द जी ने अपने पौत्र श्री हरिराय को दण्ड्वत
प्रणाम किया और अपनी दिव्य ज्योति उनको समर्पित कर दी। तद्पश्चात् समस्त संगत को
आदेश दिया कि वे भी उनका अनुसरण करते हुए श्री हरिराय जी को गुरू नानक देव जी का
उत्तराधिकारी मानकर नतमस्तक हों। आपने स्वयँ एकान्तवास में निवास करना प्रारम्भ कर
दिया। कुछ दिन पश्चात 19 मार्च 1644 ईस्वी को आपने शरीर त्याग दिया और प्रभु चरणों
में विलीन हो गये।