जब वजीरचँद और किन्चा बोग सम्राट का सन्देश लेकर श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचे तो
गुरू जी ने उनका हार्दिक स्वागत किया, किन्तु निमँत्रण के प्रश्न पर माता गँगा जी
ने आपत्ति की और इस गम्भीर विषय को लेकर प्रमुख सिक्खों की सभा बुलाई गई। सभा में
वजीर खा ने माता जी को आश्वासन दिया कि सम्राट की नीयत पर सँशय करना व्यर्थ है, वह
तो केवल आपकी सैनिक गतिविधियों से आश्वस्त होना चाहते हैं कि आपके कार्यक्रम उसके
प्रति बगावत तो नहीं, यदि आप उसे सन्तुष्ट करने में समर्थ हो जाते हैं तो वह आपका
मित्र बन जायेगा। माता गँगा जी पिछले कड़वे अनुभव से भयभीत थीं क्योंकि श्री गुरू अरजन देव जी को लाहौर आमँत्रित करने पर उनको शहीद कर दिया गया था। इस बार वह कोई
खतरा मोल नही लेना चाहती थीं। किन्तु इस बार सम्राट और गुरू जी के बीच मध्यस्थ के
रूप में गुरू घर का सेवक वजीरखान था जिनका मान रखना भी आवश्यक था। अतः अन्त में
निर्णय लिया गया कि गुरू जायें और सम्राट का भ्रम दूर करें, जिससे बिना कारण तनाव
उत्पन्न न हो, गुरू जी ने दिल्ली प्रस्थान करने से पूर्व दरबार साहिब की मर्यादा
इत्यादि कार्यक्रम के लिए बाबा बुडढा जी व श्री भाई गुरदास जी को नियुक्त किया।
तदपश्चात एक सैनिक टुकड़ी साथ लेकर घीरे-धीरे मँजिल तय करते हुए दिल्ली पहुँच गए।
यमुना नदी के तट पर एक रमणीक स्थल देखकर श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने शिविर
लगाने को कहा। कहा जाता है कि एक शताब्दी पहले यहाँ मजनू नाम का दरवेश रहता था,
जिसकी यहाँ समाधि थी। यह घटना सन 1612 ईस्वी की है।
वजीरखान व किन्चा बेग ने सम्राट जहाँगीर को सूचना दी कि श्री
गुरू हरगोबिन्द साहिब जी को हम अपने साथ लाने में सफल हुए हैं। इस पर सम्राट ने उनको
आदेश दिया कि उनको हर प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध कराई जाये तथा उनसे हमारी
मुलाकात का समय निश्चित कर दिया जाए। इस बीच जब दिल्ली की संगतों को मालूम हुआ कि
गुरू जी यहाँ पधारे हैं तो उनके दर्शनों का ताँता लग गया। अगले दिन बादशाह के कुछ
वरिष्ठ अधिकारी आपकी अगवानी करने के लिए आये और उन्होंने गुरू जी से निवेदन किया कि
आपको सम्राट ने दर्शनों के लिए याद किया है। उस समय आप स्थानीय संगतों में घिरे बैठे
थे। आपने कुछ समय में ही संगतों से विदाई ली और दिल्ली के पुराने किले मे बादशाह से
भेंट करने पहुँचे। उस समय जहाँगीर ने आपका स्वागत किया और अपने समान्तर एक आसन पर
विराजमान होने को कहा। जहाँगीर आपके व्यक्तित्व व शारीरिक रूपरेखा से बहुत प्रभावित
हुआ, वह आपका सौन्दर्य निहारता ही रह गया। आप उस समय केवल 15 वर्ष के युवक थे।
औपचारिक वार्ता के पश्चात सम्राट ने गुरू जी की योग्यता का
अनुमान लगाने के विचार से प्रश्न किया: गुरू जी इस मुल्क में दो मजहब हैं, हिन्दु व
मुसलमान। आप बतायें कि कौनसा मजहब अच्छा है ? उत्तर में गुरू जी ने कहा: कि वही
मतावलम्बी अच्छे हैं जो शुभ कर्म करते हैं और अल्लाह के खौफ में रहते हैं। यह
सँक्षिप्त उत्तर सुनकर सम्राट को सन्तुष्टि हो गई। सम्राट ने गुरू जी कई विषयों पर
चर्चा की जब उसकी यह तसल्ली हो गई कि वह वास्तव में श्री गुरू नानक देव जी के
उत्तराधिकारी होने के नाते भीतर से किसी ऊँचे आदर्श के स्वामी हैं तो उसने गुरू जी
को एक भेंट दी। जिस गुरू जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और वहाँ से विदा लेकर अपने
शिविर में लौट आये।