जैसा कि आप पैंदे खान के विषय में पहले ही पढ़ चुके हैं कि श्री गुरू हरगोबिन्द
साहिब जी ने इस अनाथ किशोर को अपनी सेना में भर्ती कर लिया था। उसने श्री अमृतसर
साहिब जी के प्रथम युद्ध में बहुत ही वीरता दिखाई, किन्तु इसे अपने बाहुबल पर
अभिमान हो गया था। उसका विचार था कि उसी के कारण गुरू जी इस प्रथम युद्ध में विजयी
हुए थे। जैसे ही गुरू जी को उसकी अभिमानपूर्ण बातों का पता चला तो उन्होंने उसकी
शादी करवाकर उसे उसके गाँव कुछ समय के लिए विश्राम करने भेज दिया। दूसरे और तीसरे
युद्ध के समय उसे जानबूझ कर नहीं बुलाया गया, क्योंकि गुरू जी अभिमान के बड़े विरोधी
थे। समय के अन्तराल में उसके घर दो बच्चों ने जन्म लिया, पहली लड़की और दूसरा लड़का।
लड़की को जब गुरू जी की गोदी में डाला गया तो उन्होंने भविष्यवाणी की कि यह कन्या
पिता तथा मुगल सत्ता पर भारी रहेगी। समय के अन्तराल में जब यह लड़की युवती हुई तो
उसका विवाह पैंदे खान ने उसमान खान नामक युवक से कर दिया। जिसके पिता लाहौर में
प्रशासनिक अधिकारी थे। उसमान खान अपने ससुराल में अधिक सुख-सुविधाओं के कारण घर
जवाई बनकर रहने लगा। उसमान खान लालची प्रवृति का व्यक्ति था, वह ससुर के माल को
हथियाने में ही अपनी योग्यता समझता था।
एक बार वैखाखी के पर्व पर चतुरसैन नामक श्रद्धालू ने गुरू जी को
कुछ बहुमूल्य उपहार भेंट किये। इनमें से एक सुन्दर घोड़ा एक बाज पक्षी तथा एक सैनिक
वर्दी इसके अतिरिक्त अन्य दुर्लभ वस्तुएँ दी। गुरू परम्परा अनुसार इन वस्तुओं को
गुरू जी सुयोग्य व्यक्तियों में बाँट देते थे। इस बार घोड़ा तथा सैनिक वर्दी पैंदे
खान को दे दी और आदेश दिया, इसे पहनकर दरबार में आया करो। बाज को गुरू जी ने अपने
बड़े सुपुत्र श्री गुरूदिता जी को सौंप दिया। पैंदे खान ने जब यह विशेष वर्दी धारण
की तो उसका सौन्दर्य देखते ही बनता था। गुरू जी उसकी अनुपम छटा पर प्रसन्न हो उठे
और पुनः आदेश दिया कि इसे धारण करके ही दरबार में आया करो। किन्तु हुआ इसके उलट।
पैंदे खान के दामाद उस्मान खान ने यह उपहार उससे हथिया लिया। इस पर दामाद और ससूर
में बहुत कहासूनी हुई परन्तु पैंदे खान की पत्नी और बेटी ने उस्मान खान का साथ देकर
उसे बढ़ावा दिया, जिस कारण पैंदे खान बेबस होकर रह गया। गुरू जी ने उसे कई बार वर्दी
में न आने का कारण पूछा, किन्तु वह हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर बात को टाल देता
था। एक दिन कुछ सिक्खों ने वह वर्दी उसके दामाद को पहनकर शिकार पर जाते देखा। इस
बीच उसके दामाद ने श्री गुरूदिता जी का बाज पकड़कर उसे एक कमरे में छिपा कर रख दिया।
यह बात गुरू जी को बताई गई, उन्होंने तुरन्त पैंदे खान को बुला लिया और उसे आदेश
दिया कि वह उस्मान खान से बाज वापिस लेकर आये। उसने उस्मान खान को बहुत मनाने की
कोशिश की किन्तु वह नहीं माना, उल्टा पर ससुर पर दबाव डालने लगा कि वह झूठ बोल दे
कि बाज मेरे पास नहीं है। पैंदे खान पर इस बात के लिए उसकी पत्नी तथा बेटी ने भी
बहुत दबाव डाला कि वह किसी तरह झूठ बोलकर उस्मान खान को बाज की चोरी से बचा ले। मरता
क्या न करता की कहावत अनुसार पैंदे खान ने गुरू दरबार में झूठी कसम खाई कि बाज
उस्मान खान के पास नहीं है।
इस पर श्री गुरूदिता जी के साथियों ने उस्मान खान के घर की तलाशी
ली और बाज बरामद कर लिया। अब पैंदे खान को नीचा देखना पड़ा। वह अर्श से फर्श पर गिर
पड़ा था, उसे मुँह छिपाने के लिए स्थान नहीं मिल रहा था। उसे पश्चाताप में क्षमा
माँगनी चाहिए थी किन्तु वह क्रोध में गुरू जी से जी उलझ पड़ा। इस पर सिक्खों ने उसे
धक्के मारकर वहाँ से भगा दिया। भारी अपमान के कारण पैंदे खान भ्रष्ट आचरण पर उतर आया,
उसने अपने दामाद उस्मान खान को गुमराह किया कि हमें गुरू जी से अपमान का बदला लेना
चाहिए। वे दोनों योजना बनाकर जालन्धर के सूबेदार (राज्यपाल) कुतुब खान से मिले कि
हमारी सहायता की जाये, हम गुरू घर के भेदी हैं, हमारे ही बल पर गुरू जी ने युद्धों
में विजय प्राप्त की है। यदि हमें पर्याप्त सेना मिल जाये तो हम गुरू जी को जीतकर
शाही सेना की पराजय का बदला चुका सकते हैं। जालन्धर के सूबेदार ने उन्हें सुझाव दिया
कि इस समय बादशाह शाहजहाँ लाहौर आया हुआ है, तुम वहाँ जाकर अपनी फरियाद करो और उन्हें
अपनी योजना बताओ, यदि वह तुम्हारी योजना पर स्वीकृति प्रदान करते हैं तो मैं
तुम्हारी हर सम्भव सहायता करूँगा। पैंदे खान और उस्मान खान लाहौर पहुँचे किन्तु
उन्हें बादशाह तक पहुँचने ही नहीं दिया गया, इस बीच उनकी करतूतों का कच्चा चिटठा
बादशाह के निकटवर्ती मँत्री वजीर खान को मालूम हो गया। वह गुरूजनों पर बहुत श्रद्धा
रखता था, उसने बादशाह शाहजहाँ को बता दिया कि कुछ नमक हराम आप से मिलना चाहते हैं
जिन्हें गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने अपने बच्चों की तरह पाला है और वह गददारी करके
शाही फौज को जितवाना चाहते हैं। यह सुनकर बादशाह सर्तक हुआ, तभी सूचना मिली कि
सम्राट का बड़ा बेटा दारा शिकोह सख्त बीमार है। अतः बादशाह को जल्दी ही दिल्ली लौटना
पड़ गया। उसका सहायक मँत्री वजीर खान भी उसके साथ दिल्ली लौट गया।
उनके दिल्ली लौटने पर पैंदे खान और उसके दामाद को एक शुभ अवसर
मिल गया। वे दोनों स्थानीय प्रशासक से मिले। उसने इस विषय पर अपने सेनानायकों की सभा
बुलाई, उसमें प्रत्येक विषयों पर गम्भीरता से विचार किया गया। अन्त में निर्णय हुआ
कि यदि जालन्धर इत्यादि सूबों से सेना मिला ली जाये तो सँयुक्त सैन्यबल, घर के भेदी
की सहायता से विजय प्राप्त कर सकते हैं। इस अभियान का नेतृत्व काले खान ने सम्भाला।
यह सेनापति पहले युद्ध में मारे गये मुख्लिस खान का भाई था। सँयुक्त सेना ने
करतारपुर को घेरने की गुप्त योजना बनाई। किन्तु समय रहते लाहौर के सिक्खों ने गुरू
जी को पहले ही सूचित कर दिया। युद्ध की सम्भावना को देखते हुए गुरू जी ने राय जोध
इत्यादि अनुयाइयों को सन्देश भेजकर समय रहते उपस्थित होने का आदेश दिया। काले खान
तथा उसके सहायक सेनानायकों ने जिसमें जालन्धर का कुतुब खान भी सम्मिलित था ने ,
योजना अनुसार करतारपुर को घेरना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु गुरू जी का सैन्य बल इस
बातों के लिए सतर्क था, उन्होंने तुरन्त घेराबन्दी को छिन्न-भिन्न कर दिया। अब
युद्ध आमने सामने का प्रारम्भ हो गया। पुरे दिन घमासान युद्ध होता रहा किन्तु कोई
परिणाम न निकला। अगले दिन एक सैनिक टुकड़ी का नायक अनवर खान जो कि पिछले युद्ध में
मारे गये लल्लाबेग का भाई था। गुरू जी के सेनानायक को द्वँद्व युद्ध के लिए ललकारने
लगा। भाई बिधिचन्द जी ने उसकी ललकार को स्वीकार किया। इस युद्ध में भले ही बिधिचन्द
जी घायल हो गये किन्तु उन्होंने अनवर खान को मृत्यु शैया पर सुला दिया।
सेनानायक अनवर खान की मृत्यु के तत्काल ही शत्रु सेना ने पूरे
जोश के साथ भरपूर आक्रमण कर दिया। इस भारी हमले को विफल करने के लिए गुरू जी की एक
सैनिक टुकड़ी के नायक भाई लखू जी शहीदी प्राप्त करे गये। इस पर भाई रायजोध जी व
जीतमल जी इत्यादि नायकों ने शाही सेना को आगे बढ़ने से रोकने के लिए अपने सैनिक
दीवार की तरह खड़े कर दिये। युद्ध में मृत्यु का ताण्डव नृत्य हो रहा था, भूमि रक्त
से लाल हो गई थी। सभी दिशाओं से मारो-मारो की भयँकर ध्वनि गूँज रही थी। इन
परिस्थितियों में गुरू जी के बड़े बेटे गुरूदिता जी व छोटे बेटे त्यागमल जी (श्री
गुरू तेग बहादर साहिब जी) अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर रणक्षेत्र में जूझने पहुँच गये।
इस आमने सामने के घमासान में सिक्ख नायकों के हाथों काले खान और कुतुब खान दोनों
मारे गये। श्री गुरूदिता जी व त्यागमल जी (श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी) ने अपने
बाहुबल के कई करतब दिखाये, वे जहां निकल जाते शत्रुओं के शवों के ढेर लग जाते।इसी
बीच पैंदे खान घोड़ा भगाकर गुरू जी के सम्मुख आ खड़ा हुआ और गुरू जी को चुनौती देने
लगा। इस पर गुरू जी ने उसे कहा? आओ बरखुरदार हम तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे।
लो पहले तुम्हीं अपने मन का चाव पूरा कर लो और करो वार, तभी पैंदे खान ने दाँव
लगाकर पूरे जोश में गुरू जी पर तलवार से वार किया, किन्तु गुरू जी ने पैंतरा बदलकर
वार बचा लिया। तब भी गुरू जी शाँत बने रहे, उन्होंने फिर पैंदे खान को एक अवसर और
प्रदान किया और कहा? लो तुम्हारे मन में यह लालसा न रह जाये कि अगर एक और मौका मिल
जाता तो मैं सफल हो जाता ? अच्छा एक और वार कर लो। अकृतज्ञ पैंदे खान को तब भी शर्म
नहीं आई, उसने पूरी सावधानी से गुरू जी पर वार किया, जिसे गुरू जी ने अपनी ढाल पर
रोक लिया। किन्तु पैंदे खान की तलवार दो टुकड़े हो गई।
अब पैंदे खान ने गुरू जी के घोड़े की लगाम पकड़ ली और दूसरे हाथ
से उसके पेट में खँजर से वार करने लगा, तब गुरू जी ने उसके मुँह पर लात मारी, वह
पटकी खाकर गिर गया, किन्तु जल्दी ही सम्भलकर उनके घोड़े के नीचे घुस गया। वह अपना
पुराना दाँव चलाकर घोड़े को उठाकर पलट देना चाहता था किन्तु गुरू जी ने एक और से उसके
सिर पर पूरे बल के साथ ढाल दे मारी जिससे उसका सिर फट गया। वह भूमि पर सो गया। गुरू
जी घोड़े से उतरे और मुँह पर ढाल से छाया करते हुए कहने लगे? पैंदे खान तुम्हारा
अन्तिम समय है लो कलमा पढ़ लो। पैंदे खान की मूर्छा टूटी तो उसने कहा? गुरू जी मुझे
क्षमा करो। मेरा कलमा तो आपकी कृपा दृष्टि ही है। इस प्रकार वह प्राण त्याग गया।
पैंदेखान के मरते ही शाही सेना भाग गई। गुरू जी के शिविर में विजय के उपलक्ष्य में
हर्षनाद किया गया। इस युद्ध की जीत के साथ ही गुरू जी ने अपने पुत्र त्यागमल का नाम
तेग बहादर रख दिया था।