श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने अपने बड़े बेटे गुरूदिता जी को आदेश दिया कि आप
हिमालय पर्वत के तराई क्षेत्र में एक नगर बसाओ और वही आगामी जीवन में निवास स्थल
बनाओ। गुरूदिता जी ने पिता श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी से आग्रह किया कि कृप्या
आप उस विशेष स्थान का चुनाव कर के दें। इस प्रकार पिता और पुत्र पर्वतीय क्षेत्र की
तलहटी में विचरण करने लगे। इस बीच गुरू जी ने अपने बेटे गुरूदिता जी को बताया कि हम
पहले जामे (शरीर) में जब श्री गुरू नानक देव जी के रूप में यहाँ प्रचार के लिए
विचरण कर रहे थे तो उन दिनों यहाँ एक गडरिया बुडण शाह निवास करता था, जिसे इबादत
करने की तीव्र इच्छा थी, इसलिए वह दीर्घ आयु की अभिलाषा रखता था, जब हमसे उसने यह
मनोकामना पूर्ण करने की मँशा प्रकट की तो हमने उसे कहा? ऐसा ही होगा हम आपके द्वारा
भेंट किया गया दूध का कटोरा छेवें जामे (शरीर) में स्वीकार करेंगे, जब आपके श्वासों
की पूँजी समाप्त होने वाली होगी। अतः अब वही समय आ गया है, हमें बुडण शाह फकीर से
भेंट करके उसका दूध का कटोरा स्वीकार करना है। गुरू जी ने एक पर्वतीय ग्राम में
बुडण शाह को खोज लिया। बुडण शाह ने आपका हार्दिक स्वागत किया, वह कहने लगा कि यह तो
ठीक है कि आप श्री गुरू नानक देव जी के उत्तराधिकारी हैं वही सब तेजस्व है किन्तु
कृप्या मुझे शाही ठाठ-बाठ से हटकर उसी रूप में दर्शन दें।
तब गुरू जी ने बाबा
गुरूदिता जी को आदेश दिया कि वह तुरन्त गुरू नानक देव जी का ध्यान करके स्नान करके
लौट आयें। गुरूदिता जी ने ऐसा ही किया। जब लौटकर बुडण शाह के सम्मुख हुए तो बुडण
शाह को वह गुरू नानक देव जी का रूप दृष्टिगोचर हुआ। वह उनके चरणों में गिर पड़ा और
दूध का कटोरा भेंट करते हुए बोला, कृप्या आप मेरे आवागमन का चक्कर समाप्त कर दें।
श्री गुरू नानक देव जी के रूप में बाबा गुरूदिता जी ने कहा? आपकी इच्छा पूर्ण हुई।
इस पर योग बल से बुडण शाह ने शरीर त्याग दिया। गुरू जी ने उनका अन्तिम सँस्कार करके
उसकी वहा कब्र बना दी।