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2. चन्दूशाह की चिन्त

श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के बढ़ते हुए तेज-प्रताप की जब उनके चचेरे भाई पृथीचँद के बेटे मेहरबान तक पहुँची तो वह पुनः ईर्ष्या की आग मे जलने लगा। उसने यह सूचना दीवान चन्दूशाह तक पहुँचाई। इस पर दीवान चन्दू चिन्तातुर हो उठा। उसे शक हो गया कि कहीं श्री गुरू अरजन देव जी का बेटा अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध मुझ से लेने की तैयारी तो नहीं कर रहा। क्योंकि वह जानता था कि षडयन्त्रकारियों ने उसे खूब बदनाम किया है। जबकि उसकी श्री गुरू अरजन देव जी की हत्या में कोई भूमिका नहीं थी, केवल उसे तो मूर्ख बनाकर एक साधन के रूप में प्रयोग किया गया था। किन्तु अब किया भी क्या जा सकता था। इस गम्भीर विषय को लेकर चन्दू ने अपनी पत्नी से परामर्श किया। उसने कहा कि हमें एक दूत भेजकर अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए तथा पश्चाताप स्वरूप उन्हें फिर से अपनी लड़की का रिश्ता भेजना चाहिए ताकि यह मनमुटाव और दोनों परिवारों में पड़ा हुआ भ्रम कि गुरू जी की हत्या में उनका हाथ है, सदैव के लिए समाप्त हो जाए। जब विशेष दूत चन्दूशाह का सन्देश लेकर गुरू जी के पास पहुँचा तो उन्होंने रिश्ता स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया। इस उत्तर से चन्दू आशँकित हो उठा और गुरू जी की बढ़ती हुई शक्ति उसे अपने लिए खतरा अनुभव होने लगी। उसने युक्ति से काम लेने के विचार से लाहौर के सुबेदार को पत्र भिजवाया कि वह गुरू हरिगोबिन्द साहिब जी की पूरी जानकारी बादशाह जहाँगीर के पास भेजे जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि गुरू जी की तरफ से बगावत का भय बन गया है।

 

लाहौर के राज्यपाल कुलीज खान ऐसा ही किया। उसने गुरू उपमा को बढ़ा चढ़ाकर एक खतरे के आभास के रूप में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया। बादशाह जहाँगीर का चिन्तातुर होना स्वभाविक था। उसने तुरन्त इस प्रश्न पर विचारविमर्श के लिए अपनी सलाहकार समिति बुलाई। जिसमें उसके उपमँत्री वजीर खान भी थे। यह वजीर खान गुरूघर में अपार श्रद्धा रखते थे क्योंकि साँईं मीयाँ मीर जी द्वारा मार्गदर्शन पर उनका जलोधर रोग श्री गुरू अरजन देव जी की शरण में जाने से दूर हो गया था। वह श्री गुरू अरजन देव जी द्वारा रचित श्री सुखमनी साहिब जी की बाणी नित्य पठन किया करते थे। उन्होंने बादशाह को धैर्य रखने को कहा और उन्हें साँत्वना दी। इस पर सम्राट ने पूछा मुझे क्या करना चाहिए ? सूझवान वजीरचन्द ने कहा? मैं उनको आपके पास बुलाकर लाता हूँ, जब साक्षात्कार होगा तो अपने आप एक दूसरे के प्रति भ्रम दूर हो जायेगा। सम्राट को यह सुझाव बहुत पसन्द आया। उसने वजीर खान तथा किन्चा बेग के हाथों श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी को दिल्ली आने का निमँत्रण भेजा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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