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1. जन्म

  • जन्मः 1595 ईस्वी
    पिता का नामः श्री गुरू अरजन देव जी
    माता का नामः माता गँगा जी
    इनकी कितनी पत्नियाँ थीः 3
    पत्नियों के नामः बीबी दामोदरी, बीबी महादेवी और बीबी नानकी।
    कितनी सन्तानें थीः 6 सन्तानें, 5 पुत्र और एक पुत्री
    पुत्रों के नामः गुरदिता, सुरजमल, अनी राय, अटल राय और श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी
    पुत्री का नामः वीरो जी
    किस स्थान पर नजरबंद रहेः ग्वालियर के किले में
    ग्वालियर के किले में कितने समय रहेः 2 साल और 3 महीने।
    प्रभात फेरी की सबसे पहली चौकी ग्वालियर से मानी जाती है।
    ग्वालियर के किले से कितने हिन्दु राजाओं को रिहा करायाः 52 राजा
    समकालीन शासकः जहांगीर और शहाजहान
    दाता बन्दी छोड़ दिवस कहाँ पर मनाया जाता हैः गुरूद्वारा श्री दाताबंदी छोड़ साहिब, ग्वालियर
    श्री अमृतसर साहिब जी में कौनसा किला बनवायाः लोहगढ़
    अकाल तखत की स्थापना श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने की।
    अकाल तखत की स्थापना कब हुईः 1609 ईस्वी
    सिक्ख इतिहास का सबसे पहला युद्ध कब हुआः 15 मई 1629 ईस्वी
    सिक्ख इतिहास का सबसे पहला युद्ध कहाँ हुआः श्री अमृतसर साहिब जी (गुरूद्वारा श्री सँगराणा साहिब जी)
    श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने मुगलों से 4 युद्ध किए और चारों में जीत हासिल की।
    दुसरा युद्ध कब और कहाँ लड़ा और जीताः सितम्बर 1629 श्री हरगोबिन्दपुर साहिब जी का युद्ध
    तीसरा युद्ध कब और कहाँ लड़ा और जीताः गुरूसर का युद्ध, 1631 ईस्वी
    चौथा युद्ध कब और कहाँ लड़ा और जीताः करतारपुर का युद्ध सन 1634 ईस्वी
    पहला युद्ध श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब और जनरल मुखलिस खान के बीच हुआ, जिसमें गुरू जी की जीत हुई।
    दुसरा युद्ध श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी और अब्दुल्ला खान के बीच हुआ, जिसमें गुरू जी की जीत हुई।
    तीसरा युद्ध श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब और लल्ला बेग, कमर बेग के बीच हुआ जिसमें गुरू जी की जीत हुई।
    चौथा युद्ध श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी और पैंदे खान के बीच हुआ, जिसमें गुरू जी की जीत हुई।
    गुरू जी का सबसे प्रिय घोड़ा, सोहिला घोड़ा था, जो कि करतारपुर की जंग जीतने के बाद रास्ते में वह शरीर त्याग गया था।
    सुहेले घोड़े को कितनी गोलियाँ लगी थीः 600 गोलियाँ
    सुहेले घोड़े के शरीर से कितना कॉस्ट मेटल निकला थाः 125 किलो
    श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी के पुत्र बाबा गुरदिता जी के पुत्र का क्या नाम था, जो कि गुरू भी बनेः साँतवें गुरू श्री गुरू हरिराए साहिब जी
    गुरू जी की परम भक्त, मुस्लिम कन्या का नाम थाः माता कौलां जी
    माता कौलां के नाम पर कौन सा सरोवर हैः कौलसर सरोवर
    गुरू जी जोती जोत कब समायेः 1644 ईस्वी

 

श्री गुरू हरिगोबिन्द साहिब जी का प्रकाश (जन्म) श्री गुरू अरजन देव जी के गृह में माता गँगा जी की पवित्र कोख से संवत 1652 की 21 आषाढ़ शुक्ल पक्ष में तदानुसार 14 जून सन 1595 ईस्वी को जिला श्री अमृतसर साहिब जी के वडाली गाँव में हुआ, जिसे गुरू की वडाली के नाम से जाना जाता है। बाल्यकाल से ही गुरू हरिगोबिन्द साहिब जी बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। श्री गुरू अरजन देव जी के यहाँ लम्बी अवधि के पश्चात इकलौते पुत्र के रूप में होने के कारण उन्हें माता पिता का अथाह स्नेह मिला और इस स्नेह में मिले उच्चकोटि के सँस्कार तथा भक्तिभाव से पूर्ण सात्विक वातावरण। आपके लालन-पालन में बाबा बुडढा जी तथा भाई गुरदास जी जैसी महान विभूतियों का विशेष योगदान रहा। जिससे आयु के बढ़ने के साथ उन्हें स्वतः ही विवेकशीलता, माधुर्य एवँ सहिष्णुता के सदगुण भी प्राप्त होते चले गए। जब आप सात वर्ष के हुए तो आपको साक्षर करने के लिए बाबा बुडढा जी तथा भाई गुरदास जी की नियुक्ति की गई। इसके साथ ही आपको शस्त्र विद्या सिखाने के लिए भाई जेठा जी की नियुक्ति की गई। आप घुड़सवारी, नेजाबाजी, बन्दूक आदि शस्त्रों को चलाने में भी जल्दी ही प्रवीण हो गये। आपका कद बुलन्द, अति सुन्दर, चौड़ी छाती, लम्बे बाजू, सुगठित शरीर एवँ मानसिक बल में प्रवीण इत्यादि गुण प्रकृति ने उपहार स्वरूप दिये हुए थे।

अरजन काइआ पलटि कै मूरति हरिगोबिन्द सवारी

गुरू अरजन देव जी को 30 मई, सन 1606 को लाहौर नगर में शेख सरहींदी व शेख बुखारी द्वारा षडयन्त्र रचकर शहीद कर दिया गया। श्री गुरू अरजन देव जी ने लाहौर जाने से पहले अपने पुत्र श्री हरिगोबिन्द साहिब जी को आदेश दिया? पुत्र अब शस्त्र धारण करने हैं और तब तक अडिग रहना हैं जब तक जालिम जुल्म करना न छोड़ दे। श्री गुरू अरजन देव जी की शहीदी के पश्चात, उनके आदेश अनुसार गुरू पदवी का उत्तरदायित्व श्री गुरू हरिगोबिन्द साहिब जी ने सम्भाला। इस बात को भाई गुरदास जी ने स्पष्ट किया है कि केवल काया ही बदली है, जबकि जोत वही रही। गुरू अरजन देव जी गुरू हरिगोबिन्द साहिब जी का रूप हो गए हैं। गुरूघर में गुरमति सिद्धान्त अनुसार सदैव गुरू शब्द को ही प्राथमिकता प्राप्त रही है काया अथवा शरीर को नहीं। शरीर की पूजा वर्जित है केवल पूजा दिव्य ज्योति की ही की जाती है। गुरूबाणी का पावन आदेश है:

जोति ओहा जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीऐ ।।
भाई गुरदास जी ने इसी सिद्धान्त को अपनी रचनाओं द्वारा पुनः स्पष्ट किया:
पंजि पिआले पंजि पीर छटमु पीरू बैठा गुरू भारी ।।
अरजनु काइआ पलटि कै मूरति हरि गोबिन्द सवारी ।।
दल भंजन गूर सूरमा वह जोधा बहू परोपकारी ।।

श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने अपने पिता जी के आदेश का अनुसरण किया और समय की नजाकत को पहचानते हुए ऐसी शक्तिशाली सेना के सृजन का निश्चय किया जो प्रत्येक प्रकार की चुनौतियों का सामना करने का साहस रखें। उन्होंने लक्ष्य निर्धारित किया कि हमारा सैनिक बल अनाथों, गरीबों, असहायों की रक्षा के लिए वचनबद्ध होगा और इसके विपरीत अत्याचारियों का दमन करेगा। श्री गुरू अरजन देव जी की शहीदी के पश्चात जब आपको बाबा बुडढा जी विधिवत तिलक लगाकर गुरिआई सौंप चुके तो आपने उसने अनुरोध किया और कहा? बाबा जी ! जैसा आप जानते ही हैं कि पिता जी का आशय था कि समय आ गया है भक्ति के साथ शक्ति का सुमेल होना चाहिए। अतः मुझे शस्त्र धारण करवायें। इस पर बाबा बुडढा जी ने उन्हें मीरी शक्ति की कृपाण शरीरक तौर पर धारण करवाई। जबकि पीरी की तलवार यानि कि गुरूबाणी के ज्ञान की तलवार, आत्मिक ज्ञान की तलवार उनके पास पहले से ही थी, इसलिए इन्हें मीरी पीरी का मालिक कहा जाता है। इसके बाद गुरू जी ने सैनिक शक्ति को सँगठित किया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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