9. जक्रिया खान और सिक्ख-9
मस्सा रँघड़ द्वारा श्री दरबार साहिब जी की पवित्रता भँग
जैसा कि आप पिछले अध्यायों में पढ़ चुके हैं कि लाहौर के राज्यपाल जक्रिया खान ने
नादिरशाह की भविष्यवाणी को आधार बनाकर कि जल्दी ही सिक्ख लोग पँजाब के सुलतान (शासक)
बन जाएँगे। सिक्खों के विरूद्ध उनके सर्वनाश का अभियान चलाना प्रारम्भ कर दिया। इस
अभियान में उसने सभी गाँवों तथा देहातों की पँचायतों के सरपँचों तथा चौधरियों को
आदेश दिया कि वे किसी भी सिक्ख को जीवित न रहने दें। इस कार्य के लिए पुरस्कार के
लालच में छीने ग्राम के चौधरी करमे, तलवाड़ी ग्राम के रामे रंधवे तथा नौशहरा क्षेत्र
के साहब राय संधू ने बहुत सरगर्मी से भाग लिया। उन्होंने हज़ारों निरपराध सिक्ख
परिवारों को मरवा दिया। उन्होंने सिक्खों के सिरों की बैलगाड़िया भर-भरकर लाहौर भेजीं
और मुगल हाकिमों से नकद पुरस्कार प्राप्त किए। इस प्रकार जंडियाले क्षेत्र का चौधरी
हरि भक्त निरँजनिया, धर्मदास टोपी, जोधे नगरिया, बुशैहरे पुनूँआ तथा मजीठ ग्रामों
के चौधरी भी इस काम में बहुत बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। परन्तु सभी चौधरियों से
उग्र रूप धारण किया हुआ था, मंडियाला क्षेत्र का चौधरी मीर मुसाल उलद्दीन (मस्सा रंघड़) इसने अत्याचारों की अति ही कर दी थी और इसने सभी से बढ़कर जक्रिया खान से नकद
राशि प्राप्त की। अतः इसके अत्याचारों से प्रसन्न होकर इसे जक्रिया खान ने श्री
अमृतसर साहिब जी का कोतवाल नियुक्त कर दिया क्योंकि इससे पहला कोतवाल अपने
जुल्मों-सितमों के कारण, काज़ी अब्दुल रहिमान’ भाई सुक्खासिंह के जत्थे द्वारा मारा
जा चुका था। मस्सा रँघड़ एक राजपूत ज़िमीदार था। इसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। यह
अमृतसर से चार कोस दक्षिण की ओर स्थित मंडियाला देहात का निवासी था। इसके चेहरे पर
एक मस्सा था और इसकी जाति रँघड़ थी, अतः लोग इसे इसके वास्तविक नाम से न पुकारकर
उपनाम से पुकारते थे चौधरी ‘मस्सा रँघड़’। जक्रिया खान ने मस्सा रँघड़ को अमृतसर का
कोतवाल बनाते समय एक विशेष कार्य सौंपा कि कोई भी सिक्ख श्री दरबार साहिब के निकट न
आने पाए तथा वे अमृत सरोवर में किसी प्रकार भी स्नान न करने पाए। यदि कोई ऐसा करता
हुआ पाया जाता है तो उसे तुरन्त गोली मार दी जाए अथवा मृत्युदण्ड दिया जाए। ऐसे में
मस्सा रँघड़ ने श्री दरबार साहिब जी के मुख्य स्थान श्री हरिमन्दिर साहिब जी को एक
नाचघर का रूप दे दिया। जहाँ वह सुसपान, धुम्रपान और वैश्याओं का नृत्य आदि देखने लगा।
जब उसकी इस अईयाशी की बात स्थानीय सहजधारी सिक्खों के कानों में पड़ी तो उन्होंने
तुरन्त इस दुखान्त की सूचना दल खालसा के किसी एक जत्थे को भेजने का प्रयत्न किया,
जो उन दिनों दूरदराज क्षेत्रों में विचरण कर रहे थे। इस कार्य के लिए उन्होंने अपने
दूत के रूप में भाई बुलाका सिंह को बीकानेर भेजा। उन दिनों वहाँ जत्थेदार बुड्ढा
सिंह तथा शाम सिंह के जत्थे प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। जत्थेदार बुड्ढा सिंह को
भाई बुलाका सिंह ने बहुत भावुकता में श्री दरबार साहिब जी की पवित्रता भंग होने का
समाचार सुनाया। उस समय उनके नेत्र करूणामय पीड़ा से द्रवित हो उठे। जत्थेदार बुड्ढा
सिंह जी ने इस दुखान्त का बहुत गम्भीरता से विश्लेषण किया और तुरन्त सभा बुलाई
दीवान सजाया और समस्त शूरवीरों को इस दुर्घटना से अवगत करवाया। मस्सा रँघड़ की काली
करतूतें सुनकर योद्धाओं का खून खौल उठा, वे तुरन्त पँजाब प्रस्थान करने पर बल देने
लगे किन्तु जत्थेदार साहिब ने कहा कि हमारी सँख्या बहुत कम है। अतः हम सीधी टक्कर
नहीं ले सकते, इस समय हमें युक्ति से काम लेना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने अपने सभी
जवानों को ललकारा और कहा कि है कोई योद्धा ! जो मस्सा रँघड़ का सिर युक्ति से काट कर
हमारे पास प्रस्तुत करे। इस पर सरदार महताब सिंह खड़ा हुआ और उसने निवेदन किया कि उसे
भेजा जाए क्योंकि वह उसी क्षेत्र का निवासी है, भौगोलिक स्थिति का ज्ञान होने के
कारण सफलता निश्चित ही मिलेगी। तब जत्थेदार बुड्ढा सिंह ने सभा को सम्बोधन करके कहा
कि इसकी सहायता के लिए कोई और जवान भी साथ में जाए। इस पर भाई सुखा सिंह जी ने स्वयँ
को प्रस्तुत किया और कहा कि मैं महताब सिंह का सहयोगी बनूँगा क्योंकि मैं भी वहीं
निकट के गाँव माड़ी कम्बो का रहने वाला हूँ।
दोनों योद्धाओं की सफलता के लिए सभी जवानों ने मिलकर गुरू चरणों
में प्रार्थना की और उन्होंने शुभकामनाओं के साथ उनको विदा किया। इन दोनों योद्धाओं
ने बहुत विचारविमर्श के पश्चात् एक योजना बनाई, जिसके अनुसार इन्होंने अपनी वेश-भूषा
मुगल सैनिकों जैसी बना ली और यात्रा करते हुए श्री अमृतसर साहिब जी के निकट पहुँचकर
फूटे हुए घड़ों के टुकड़ों को गोल-गोल बनाकर एक रूपये के सिक्कों का रूप दिया और उन
टोकरियों की थैलियाँ भर ली और सीधे श्री दरबार साहिब जी की दर्शनी डयोढ़ी के निकट
लीची बेरी के वृक्ष के साथ घोड़े बाँधकर अन्दर प्रवेश करने लगे तो वहाँ तैनात सँतरियों
ने पूछा तुम कौन हो ? इसके उत्तर में महताब सिंह ने कहा कि हम लम्बरदारों से लगान
इक्ट्ठा कर के लाए हैं जो कि कोतवाल साहब को देने जा रहे हैं। सँतरियों ने उनके हाथों
में थैलियाँ देखकर उन्हें अन्दर जाने दिया। मुख्य स्थल श्री हरि मन्दिर साहिब जी
में पहुँचकर उन्होंने जो अन्दर का दृश्य देखा तो उन शूरवीरों का खून खौल उठा। मस्सा
रँघड़ चारपाई पर बैठा नशे में द्युत हुक्का पी रहा था और कँजरियों का मुज़रा देख रहा
था। तभी भाई महताब सिंह जी ने थैलिया पलँग के नीचे फैंकते हुए कहा कि हम लगान लाए
हैं, जैसे ही मस्सा रँघड़ ने पलँग के नीचे झाँकने का प्रयत्न किया, तभी सरदार महताब
सिंह ने बिजली की गति से तलवार के एक ही वार से उसका सिर कलम करके उतार दिया। यह
देखकर मस्सा के सभी साथी घबराकर इधर-उधर भागने लगे। तभी द्वार पर खड़े सुखा सिंह ने
कड़ककर कहा कि कोई भी अपने स्थान से हिलेगा नहीं, किसी ने हिलने की कोशिश की तो हम
उसे मौत के घाट उतार देंगे। इतने में महताब सिंह ने मस्सा के सिर को थैले में डाला
और उसे कँघे पर लटकाकर बाहर चले आए। बाहर खड़े सँतरियों ने अपने लिए इनाम माँगा, इस
पर सुखा सिंह व महताब सिंह ने उनको वहीं तलवारों से झटका दिया और घोड़े खोलकर वापिस
निकल भागे। मस्से की हत्या की सूचना पाकर पँजाब का राज्यपाल जक्रिया खान बहुत लाल
पीला हुआ। उसने अमृतसर के आसपास के परगनों के चौधरियों को बुलाकर कहा कि ‘मस्से के
हत्यारे को पकड़कर पेश किया जाए’। हरिभक्त निरँजनीये नामक चौधरी ने मुखबरी की कि यह
काण्ड किसका किया हुआ है ? लम्बी यात्रा करते हुए दोनों सिंह बीकानेर नगर पहुँच गए।
उन्होंने मस्से रँघड़ के सिर को भाले पर टाँगकर सिंघों की भरी सभा में मस्से रँघड़ के
सिर को प्रस्तुत किया। इस विजय को देखकर चारों ओर जयकारों की गर्ज होने लगी। यह घटना
सन् 1740 के अगस्त माह में घटित हुई।