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8. जक्रिया खान और सिक्ख-8

भाई सुक्खा सिंघ जी व महताब सिंघ जी
अगस्त, 1740 ईस्वी में श्री दरबार साहिब अमृतसर की पवित्रता भँग करने वाले चण्डाल मीर मुगल उलद्दीन उर्फ मस्या रँघड़ का सिर कलम करके लाने वाले योद्धा, भाई महताब सिंह ‘मीरां कोटिया’ तथा भाई सुक्खा सिंह ‘माड़ी कम्बो’ के नामों को सिक्ख जगत में कौन नहीं जानता ? इन शूरवीरों ने मस्सा रँघड़ का सिर उतारकर ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए कि सिक्ख सम्प्रदाय के प्रतिद्वन्द्वियों को यह एहसास हो गया कि गुरूद्वारों की पवित्रता भँग करने वाले दुष्टों को वैसी ही सजा मिलती रहेगी, जैसा कि मस्से रँघड़ को सबक सिखाया गया है। इस लेख में हम सरदार सुक्खा सिंह के जीवन चरित्र को चित्रण करेंगे और उसके द्वारा की गई पँथ की सेवा का वर्णन करेंगे। भाई सुक्खा सिंह जी के पिता सहजधारी सिक्ख थे, वह प्रशासन के भय के कारण केशाधारी नहीं बन पाए। वह अपनी उपजीविका के लिए बढ़ई का कार्य करते थे। बारह वर्ष की आयु में सुक्खा सिंह का विवाह कर दिया गया ताकि वह गृहस्थ आश्रम की दलदल में फँस जाए और भय के कारण केश धारण न करें। परन्तु सुक्खा सिंह शूरवीर साहसी योद्धा था, उसे मृत्यु का किंचित मात्र भय भी न था। उसने एक वैसाखी वाले दिन श्री दरबार साहिब जी जाकर भाई मनी सिंह जी से अमृत धारण (अमृतपान) कर लिया। वह अब पूर्ण केशधारी सिक्ख था। जहाँ भी उसे गुरू संगत की सफलता की सूचना मिलती, वह पहुँच जाता और तन मन तथा धन से सेवा करता, इस प्रकार गुरू गाथाएँ सुन-सुनकर उसके हृदय में अथाह स्नेह सिक्खी के प्रति जागृत होता चला गया। वह प्रत्येक गुरूसिक्ख की सच्चे हृदय से सेवा करता परन्तु उसके माता-पिता मुगल शासकों की सिक्ख विरोधी नीतियों से बहुत भयभीत रहते थे। अतः वह नहीं चाहते थे कि उनके सुपुत्र पर प्रशासन की कुदृष्टि पड़े। एक दिन इनाम के लालच में एक चुगलखोर ने सुक्खा सिंह के घर की घेराबंदी करवा दी परन्तु इतफाक से सुक्खा सिंह घर पर ही नहीं था। अतः सिंह जी सहज ही बच गए। जब सुक्खा सिंह घर पर लौटे तो उनके माता-पिता ने बहुत समझाया कि हमने सिक्खों से क्या लेना-देना है जो अपने जीवन को खतरे में डाल रहे हों। परन्तु सुक्खा सिंह की आत्मा इतनी बलवान हो चुकी थी कि उसे मृत्यु अथवा अन्य कोई भी भय विचलित न कर सका। जब किसी विधि से भी सुक्खा सिंह ने सिक्खी न त्यागी तो उसके माता-पिता ने उसके साथ दगा कर दिया तथा खाने में उसे कोई नशीली दवा मिलाकर खिला दी जिस कारण उसे होश न रहा। उसके केश अचेत अवस्था में काट दिए गए।

जब उसे होश आया तो उसने पाया कि उसके साथ दगा हुआ है, उसने अपराधियों को दण्ड देने का विचार बनाया किन्तु वे तो उसी के अपने माता-पिता थे, उन्हें वह कैसे क्षति पहुँचा सकता था। अतः दुखी होकर उसने अपनी जीवनलीला ही समाप्त करने का निर्णय ले लिया और एक कुएँ में डूब मरने का विचार बनाया। जैसे ही इस दुखान्त की सूचना उसके एक सिक्ख मित्र को मिली तो वह उसे मिलने के लिए आया और उसने उसे समझाया कि इस अमूल्य शरीर को नष्ट करने का क्या लाभ ? यह तो आत्महत्या होगी जो कि महाअपराध है। मरना ही है तो जूझारू सिंघों, संघर्षरत सिंघों के किसी जत्थे में सम्मिलित हो जाओ जहाँ तुम्हें बहुत से वीरता दिखाने के शुभ अवसर प्राप्त होंगे और तुम्हारा लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा, जिससे तुम शहीद कहलाओगे। सरदार सुक्खा सिंह को मित्र का परामर्श भा गया। वह सरदार शाम सिंह जी के जत्थे में सम्मिलित हो गया। परन्तु उसे एक घोड़े की अति आवश्यकता थी। उसने स्थानीय सरपँच का एक रात को घोड़ा खोल लिया परन्तु जब उसे नादिरशाह के लूटे हुए खजारे से बहुत से रूपये हाथ आए तो उसने सरपँच को उसके घर जाकर घोड़े की कीमत चुका दी। जहाँ चाह वहाँ राह के कथन अनुसार सुक्खा सिंह को शस्त्र से बहुत प्रेम था, उसके इस जनून को जुझारू सिंघों के जत्थे में बढ़ावा मिला, यहीं उसने सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी और वह सभी अभियानों में अग्रणी रहता। सुक्खा सिंह केवल योद्धा ही नहीं था, वह तो जीवन चरित्र से संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। सदैव गुरू की वाणी पढ़ता रहता, जब अवकाश का समय मिलता तो अन्य साथियों से मिलकर कीर्तन करने का अभ्यास करता रहता। उसे जब भी कोई अवसर मिलता, वह दीन-दुखियों की सहायता को पहुँच जाता, उसका एक ही लक्ष्य था कि परहित में निष्काम सेवा, जो वह तन मन व धन से करता हुआ दिखाई देता। सन् 1736 ईस्वी में पँजाब के राज्यपाल जक्रिया खान ने अपनी सेना के वरिष्ठ अधिकारियों तथा विद्वानों का सम्मेलन बुलाया और उसमें उसने अपनी गम्भीर समस्या रखी कि मैंने तथा मेरे पिता अब्दुलसमद खान ने लगभग 20 वर्ष से सिक्ख सम्प्रदाय को समाप्त करने का बहुत सख्ती से अभियान चलाया, जिसमें करोड़ों रूपये व्यय हुए और हजारों अनमोल जीवन व्यर्थ गए परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। इसका क्या कारण हो सकता है, जबकि हमने पकड़े गए सिक्खों को सबसे ज्यादा कष्टदायक यातनाएँ देकर मृत्युदण्ड दिए हैं ताकि कोई व्यक्ति सिक्ख बनने का साहस न कर सके।

परन्तु इनकी सँख्या दिनो-दिन बढ़ती ही जाती है। इसका उत्तर किसी को नहीं सूझ रहा था परन्तु वहाँ पर विराजमान शाही काज़ी अब्दुल रहिमान ने कहा कि जहाँ तक मेरा विश्वास है कि इनका मुर्शद (गुरू) बहुत अजमत (आत्मबल) वाला हुआ है, वह श्री दरबार साहब जी के सरोवर में आब-ए-हयात (अमृत) मिला गया है, जिसे पीकर सिक्ख अमर हो जाते हैं। यदि हम इन लोगों को सरोवर से दूर रखने में कामयाब हो जाते हैं तो वह दिन दूर नहीं, ये सभी सिक्ख समाप्त हो जाएँगे। जक्रियाखान को अहसास हुआ कि सिक्खों की गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु तो श्री दरबार साहिब व अमृत सरोवर ही है शायद काज़ी की बात में कोई तथ्य हो, चलो यह काम भी करके देख ही लेते हैं। बस फिर क्या था, उसने इस कार्य के लिए दो हजार सिपाही काज़ी अब्दुल रहिमान को देकर उसी की नियुक्ति अमृत सरोवर पर कर दी, ताकि वह सिक्खों को सरोवर में स्नान करने से रोकने में सफल हो सके। जब अमृतसर का कोतवाल बनकर काज़ी अब्दुल रहिमान दो हजार सैनिक के साथ श्री दरबार साहिब जी के परिसर में पहुँचा तो उसने वहाँ श्रद्धालुओं के आने पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया और जो भी उस समय स्नान अथवा भजन करने में व्यस्त थे, उन्हें गिरफ्तार करके इस्लाम कबूल करने को कहा, इस्लाम कबूल न करने पर उन्हें कड़ी यातनाएँ देकर मृत्युदण्ड दिया गया। तद्पश्चात दोण्डी पिटवाई गई किः है कोई ऐसा सिक्ख ! जो अब अमृत सरोवर में स्नान करके दिखा दे ? इस चुनौती को जत्थेदार शाम सिंह के शूरवीरों ने स्वीकार किया। इन योद्धाओं में सरदार सुक्खा सिंह व सरदार थराज सिंह (भाई मनी सिंह जी के भतीजे) अग्रणी थे। एक दिन अमृत वेला भोर के समय में पचास जवानों के जत्थे ने साथ के रिलवाली दरवाज़े के बाहर पहुँच गये। उन्होंने स्वयँ अमृत सरोवर में स्नान किया और बहुत ज़ोरों से जयकारे लगाए। जिसे सुनकर शत्रु सुचेत हुआ और उनका पीछा करने लगा। सिक्खों का पीछा करने वालों में स्वयँ अब्दुल रहिमान और उसका बेटा भी था, जैसे ही ये लोग रिलवाली दरवाजें के निकट पहुँचे तो वहाँ घात लगाकर बैठे हुए सिंघों ने इन पर आक्रमण कर दिया। उस घमासान युद्ध में काज़ी अब्दुल रहिमान और उसका बेटा मारा गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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