7. जक्रिया खान और सिक्ख-7
सन् 1721 से भाई मनी सिंघ जी सिक्ख कौम की अगुवाई कर रहे थे। सन् 1738 की दीवाली को
भाई मनी सिंह जी ने सारे पँथ को एकत्रित करने की सोची। मुगल हुकुमत के जकरिया खान
ने इस शर्त पर स्वीकृति दी कि 5,000 रूपये कर के रूप में देने होंगे। भाई मनी सिंघ
जी ने इस बात को स्वीकार कर लिया, क्योंकि वो पँथ को एकत्रित करना आवश्यक समझते थे।
उनका विचार था कि सब एकत्रित होंगे तो रूपये भी आ जाएँगे। दूसरी और जकरिया खान की
योजना थी की एकत्रित सम्पूर्ण खालसा को दीवाली वाली रात में घेरकर तोपों से उड़ा दिया
जाए। भाई मनी सिंघ जी ने उस दीवाली के अवसर पर एकत्रित होने के विशेष हुकुमनामे भी
भेजे थे। जकरिया खान की यह चाल थी कि दीवान लखपत राये को भारी फौज देकर खालसा पर
हमला बोला जाए। इधर फौजें एकत्रित होते देखकर और खबर मिलने पर भाई मनी सिंह जी ने
अपने सिक्खों को दौड़ाया और बाहर से आने वाले सिंघों को रास्तें में ही रोक देने का
यत्न किया। परन्तु फिर भी सारे सिंघ रोके नहीं जा सके और बहुत सँख्या में एकत्रित
हो गए। चाल के अनुसार लखपत राय ने हमला कर दिया। दीवान लग न सका। कई सिंघ शहीद हो
गए। भाई मनी सिंह जी ने इस घटना का बड़ा रोश मनाया और हुकुमत के पास साजिश का विरोध
भेजा। परन्तु जकरिया खान ने उल्टे 5,000 रूपये की माँग की। भाई मनी सिंह जी ने कहा
की लोग एकत्रित तो हुए नहीं, पैसे किस बात के। भाई मनी सिंह जी हुकुमत की चाल में
फँस चुके थे। उन्हें बंदी बनाकर लाहौर दरबार में पेश किया गया। जकरिया खान ने उन्हें
इस्लाम स्वीकार करने को कहा और जुर्माने की रकम अदा न करने की सूरत में उनका
अंग-अंग जुदा करने का आदेश दिया। भाई मनी सिंह जी ने शहादत स्वीकार करते हुए कहा कि
सिक्खी पर मैं कई जीवन न्यौछावर करने को तैयार हुं। काजी ने बोटी-बोटी काटने का
आदेश सुनाया और उन्हें शाही किले के पास बोटी-बोटी काटने के लिए ले गए। भाई मनी
सिंह जी के कई साथियों की भी सख्त सजाएँ दी गईं। भाई मनी सिंघ जी को जब शहीद करने
के लिए ले जाया गया, तो बोटी काटने वाला भाई जी का हाथ काटने लगा तो, भाई मनी सिंघ
जी बोले कि अँगुली से काटना चालु कर, क्योंकि तुम्हारे आकाओं ने बोटी-बोटी काटने का
आदेश दिया है। इस प्रकार भाई मनी सिंघ जी शहीद हो गए। आपकी शहीदी ने हर एक सिक्ख
में गुस्से तथा जोश की लहर भर दी।
इतिहास गवाह है कि सिक्ख कौम जहाँ अति उत्तम दर्जे की दयालू कौम
है, वहाँ जालिमों को छोड़ती भी नहीं। जितनी भी शहीदियाँ हुई हैं, उनका बदला लिए बगैर
खालसा टला नहीं है। इसलिए यह आवश्यक था कि जिन हत्यारों का भाई मनी सिंघ जी की शहीदी
में हाथ था, उन्हें उनके किए की सजा दी जाए। इसलिए सबसे पहले सरदार अघड़ सिंघ (जो
भाई मनी सिंह जी के भतीज थे) ने दिन दहाड़े कातिलों को मिटा दिया। परन्तु अभी भी दो
बड़े हत्यारे समद खान और खान बहादुर जकरिया खान बाकी थे। प्रसिद्ध समद खान यूफसफजई
करके मशहुर था, जिसने भाई मनी सिंघ जी को काफी कष्ट दिए थे। सिक्ख पँथ के महान
जत्थेदार नवाब कपूर सिंघ जी के एक जत्थे से समद खान की मुठभेड़ हो गई और समद खान पकड़ा
गया। उसे रस्सों से बाँधकर घोड़ों के पीछे बाँध दिया गया और घोड़ों को खूब दौड़ाया गया।
इस प्रकार इस अपराधी को भी दण्ड दे दिया गया। समद खान की मौत को देखकर दूसरे अपराधी
जकरिया खान को समझ आ चुकी थी कि खालसे ने एक दिन उसका भी बुरा हाला करना है। इस भय
से उसने किले से बाहर निकलना बँद कर दिया। उस पापी की भी सन् 1745 में खालसे के डर
से मौत हो गई। (जकरिया खान को पेशाब आना भाई तारा सिंघ जी के श्राप के कारण बँद हो
गया था। जो कि भाई तारा सिंघ जी के जूते मारने से पेशाब का बँधनमूत्र छूट रहा था और
यही उसकी मौत का कारण बना।)
जक्रिया खान द्वारा पुनः सिक्खों का दमन चक्र अभियान
नादिरशाह के लौटने के उपरान्त जक्रिया खान को उसकी दी हुई सीख को बहुत गम्भीरता से
लिया, उसे अब चारों ओर केवल सिक्खों की बढ़ती हुई शक्ति से भय दिखाई देने लगा। उसे
अहसास होने लगा कि सिक्ख कभी भी उसका तख्ता पलट सकते हैं और उसके हाथ से सत्ता छिन
जायेगी। अतः उसने अपना सम्पूर्ण बल सिक्खों के सर्वनाश के लिए लगा दिया। सर्वप्रथम
उसने समस्त प्रान्त के क्षेत्रीय, प्राशसनिक अधिकारियों की एक सभा बुलाई, जिसमें
सिक्खों के प्रति बहुत कड़े आदेश दिये गए। इन आदेशों में कहा गया कि समस्त सिक्ख
सम्प्रदाय को विद्रोही जानकर उनको मृत्युदण्ड दिया जाए, भले ही वह उग्रवादी हों अथवा
शान्तिवादी। यदि इनमें से कोई इस्लाम स्वीकार कर लेता है तो उसे क्षमा किया जा सकता
है, अन्यथा विभिन्न प्रकार की यातनाएँ देकर मौत के घाट उतार दिया जाए। जो लोग ऐसा
करने में प्रशासन की सहायता करेंगे, उन्हें पुरस्कार दिये जाएँगे, इसके विपरीत जो
लोग प्रशासन की सहायता न करके सिक्खों को प्रोत्साहित करेंगे उन्हें कड़े दण्ड दिए
जाएँगे। इस आदेश को व्यवहारिक रूप देने के लिए उसने अपनी समस्त सुरक्षा बल की
टुकड़ियों को विभिन्न दिशाओं में गश्त करने के लिए भेज दिया। जक्रिया खान ने दल खालसा
के नायक नवाब कपूर सिंघ जी को सँदेश भेजा, वह नादिर से लूटे हुए खजाने का आधा भाग
उसे लौटा दे अन्यथा सीधी टक्कर के लिए तैयार हो जाएँ। इसके उत्तर में सरदार कपूर
सिंघ जी ने कहलवा भेजा कि बबर शेर की दाढ़ में से माँस ढूँढते हो, ऐसा सम्भव ही नहीं
है। अब नवाब साहिब शत्रु से सतर्क हो चुके थे, उन्होंने टकराव से बचने के लिए अपनी
सेना को दूर प्रदेश में जाने का आदेश दे दिया। इसके पीछे उनकी कुछ विवशताएँ भी थी।
नादिर की सेना से जूझते हुए उनके बहुत से योद्धा वीरगति प्राप्त कर गए थे। अधिकाँश
सैनिक घायल अवस्था में उपचार हेतु बिस्तर पर पड़े हुए थे। कुछ उन महिलाओं को उनके घरों
में वापिस छोड़ने के लिए गए हुए थे, जो उन्होंने नादिर की दासता से मुक्त करवाई थीं।
कुछ एक उन युवतियों के आग्रह पर सिक्ख योद्धाओं ने विवाह कर लिया था, जिन्हें नवाब
साहिब जी ने आज्ञा प्रदान कर दी थी। वे योद्धा भी नवविवाहित होने के कारण छुट्टी पर
थे।
भले ही नवाब साहिब को नये युवकों की भर्ती बहुत सहज रूप में मिल
रही थी किन्तु अप्रशिक्षित सैनिकों पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। अतः नवाब साहिब
कुछ समय के लिए जक्रिया खान से भिड़ना नहीं चाहते थे। भले ही इस समय उनके पास रण
सामग्री की कमी नहीं थी तथा आर्थिक दशा भी बहुत मजबूत थी। तथापि आपने शान्ति बनाए
रखने में सभी की भलाई समझी और लाहौर नगर से दूर रहने की नीति अपनाई। परन्तु इस बात
का लाभ सिक्खों के शत्रु जक्रिया खान ने खूब उठाया। उसने इस समय शान्तिप्रिय साधारण
सिक्ख नागरिकों को गाँव-गाँव से पकड़ना शुरू कर दिया और श्री अमृतसर नगर में अपनी
सैनिक टुकड़ियाँ तैनात कर दी ताकि कोई सिक्ख दर्शन तथा स्नानार्थ न आ सके। जब जक्रिया
खान के गश्ती सैनिक टुकड़ियों को किसी भी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा तो वे
मुगल सिपाही बेलगाम होकर निर्दोष शान्तिप्रिय नागरिक सिक्खों की हत्याएँ मनमाने ढँग
से करने लगे। जक्रिया खान को अपने लक्ष्य में मिल रही सफलता ने अँधा बना दिया। उसने
बिना सोचे समझे सिक्खों के बीज नाश करने की शपथ ले ली। अब उसने, सिक्ख के प्रत्येक
कटे हुए सिर का मूल्य एक बिस्तर और एक कम्बल निश्चित कर दिया और उनके सम्बन्ध में
सूचना देने वाले को दस रूपया और जीवित सिक्ख पकड़वाने पर 80 रूपये, मृत सिक्ख के शव
को लाने वाले को पचास रूपया पुरस्कार के रूप में देने का वचन दिया। ऐसी भयँकर
परिस्थितियों में सिक्ख पँजाब छोड़कर दूर प्रदेशों अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में लुप्त
हो गए। जो ऐसा न कर सके, वे गाँव देहात छोड़कर वनों में दिन काटने लगे और फिर से
शान्तिकाल की प्रतीक्षा में भजन बंदगी करने लगे।