6. जक्रिया खान और सिक्ख-6
धर्म रक्षा हेतु भाई मनी सिंघ जी द्वारा अपने प्राणों की आहुति
भाई मनी सिंह जी सिक्ख इतिहास में एक पूज्य व्यक्ति हैं। आपका जन्म सन् 1644 को
गाँव अलीपुर, जिला मुजफरगढ़ (पश्चिमी पाकिस्तान) में हुआ था। आपकी माता का नाम मघरी
बाई और पिता का नाम माई दास था। आपके दादा भाई बल्लू जी छठे गुरू, श्री गुरू
हरगोबिन्द साहिब के समय पर तुर्कों से युद्ध करते हुए 1634 को अमृतसर में शहीद हो
गए। भाई माई दास जी के 12 बेटे थे इनमें से केवल एक को छोड़कर बाकी, 11 ने शहीदी
प्राप्त की। जब भाई मनी सिंह की आयु 13 साल की हुई तो उनके पिता भाई माई दास उन्हें
संग लेकर सांतवें गुरू हरिराय साहिब के पास दर्शन के लिए कीरतपुर साहिब आये। 15
वर्ष की आयु में मनी सिंघ का विवाह भाई लखी राय की सुपुत्री बीबी सीतो जी से हुआ।
ये भाई लखी राय जी वही थे, जिन्होंने श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के पवित्र घड़ का
सँस्कार अपने घर जाकर किया था। सातवें गुरू, हरिराय साहिब के ज्योति में विलीन होने
के बाद आप गुरू हरिकिशन साहिब की सेवा में लगे रहे। गुरू हरिकिशन साहिब के दिल्ली
में ज्योति में विलीन हो जाने के उपरान्त आप बकाले गाँव में श्री गुरू तेग बहादर
साहिब जी की सेवा में आ गए। श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी जब पूर्वी क्षेत्रों के
प्रचारक दौरे से वापिस श्री आनंदपुर साहिब जी पहुँचे तो भाई मनी सिंह भी वहीं पर आ
गए। यहाँ पर आपने गुरबाणी की पोथियों की नकलें उतारने व उतरवाने की सेवा को सम्भाला।
1699 की बैसाखी वाले दिन श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी द्वारा खालसा पँथ की
स्थापना की गई। इस अवसर पर भाई मनी सिंघ जी ने अपने भाईयों तथा पुत्रों सहित
अमृतपान किया। आपका नाम मनिये से भाई मनी सिंघ हो गया। श्री आनंदपुर साहिब जी के
पहले युद्ध में, जिसमें पहाड़ी राजाओं ने हाथी को शराब पिलाकर किले का दरवाजा तोड़ने
के लिए भेजा था, उसका मुकाबला भाई मनी सिंह के सुपुत्रोः भाई बचित्र सिंह और भाई उदै
सिंह ने किया था। जब गुरू गोबिन्द सिंह जी ने श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ा तो
भाई मनी सिंह जी गुरू जी की स्त्रियों (पत्नियों), माता सुन्दर कौर जी तथा माता
साहिब कौर जी को दिल्ली पहुँचाने में सफल हुए।
मुक्तसर के युद्ध के पश्चात् जब श्री गुरू गोबिन्द सिंह साहिब
जी साबो की तलवँडी (बठिण्डा) पहुँचे तो भाई मनी सिंह जी, गुरू जी की पत्नियों और
संगत को लेकर वहाँ हाजिर हुए। वहीं पर गुरू जी ने श्री दमदमी बीड़ साहिब जी आप से
लिखवाई। बाबा बंदा सिंह बहादर जी की शहीदी के बाद श्रद्धावश कई सिंघों ने बाबा बंदा
जी को मानना शुरू कर दिया था। वे अपने आपको बंदई खालसा कहते थे। भाई महंत सिंह
खेमकरण, बंदइयों के जत्थेदार थे। बंदई एक दुसरे को मिलते समय वाहिगुरू जी का खासला
वाहिगुरू जी की फतेह के स्थान पर फतेह दर्शन बोल कर अभिवादन करते थे। बंदई, अमृतसर
पर कब्जा करने के लिए चल पड़े। दूसरी और वास्तविक खालसे की ओर से बाबा बिनाद सिंह के
सुपुत्र बाबा काहन सिंह ने दीवाली पर सिक्खों को एकत्रित करने की आज्ञा हुकुमत से
पहले ली ले ली थी। दोनों गुट श्री अमृतसर साहिब जी पहुँचे और अपने-अपने को असली
वारिस और प्रबन्धक साबित करने के लिए एक-दूसरे को मरने मारने तक तैयार हो गए। सिख
संगत ने दोनों गुटों को इस नाजूक समय में झगड़ा न करने की बात मनवा ली, क्योंकि काफी
समय बाद सिक्ख आपस में मिलकर बैठे थे। ये मुगल हुकुमत की भी चाल लगती थी कि ये आपस
में झगड़ कर मर जाएँगे। इसलिए एकत्रित करने की आज्ञा भी दे दी गई थी। दीवाली तो आराम
से निकल गई पर जजबात भड़क उठे। इसके लिए किसी स्थाई हल की आवश्यकता थी। दीवाली के
बाद सिक्खों ने माता सुन्दर जी को सभी खतरों से अवगत कराया। माता सुन्दर जी ने
दूरदृष्टि से काम लेते हुए, भाई मनी सिंह जी को श्री अमृतसर साहिब जी का इंचार्ज
बनाकर भेजा और साथ ही उन्हें मुख्यग्रँथी भी नियुक्त किया गया। श्री अमृतसर साहिब
जी आकर भाई मनी जी ने सारी स्थिति का मूल्याँकन किया। पहले तो सेवा सम्भाल का
प्रबन्ध ठीक किया। मर्यादा कायम की। बैसाखी पर समूचे खालसा पँथ को एकत्रित होने को
कहा। भाई मनी जी ने देख लिया कि किसी हल की आवश्यकता है, वरना सारा लावा फूट का,
पँथ के खड़े महल को उधेड़ देगा। अकाल बुँगे पर वास्तविक खालसा के जत्थेदार बाबा काहन
सिंह ने तथा झण्डा बुँगा पर भाई महंत सिंह खेमकरण वाले ने कब्जा कर लिया। सिक्खों
में रोश उस समय बढ़ गया, जब महंत सिंह रथों पर गदेले लगाकर श्री दरबार साहिब जी तक आ
गया। बैसाखी वाले दिन भाई मनी सिंह जी ने यह सुझाव दिया कि रोज-रोज के झगड़े को
मिटाने के लिए, यह निश्चित करने के लिए की प्रबंध किसके हाथ में होना चाहिए और
वारिस कौन है, इसके लिए हरि की पौड़ी (अमृत सरोवर) पर पर्चियाँ डाली जाएँ। दोनों दल
मान गए। श्री अमृतसर साहिब जी में जी पर्चियाँ डालने तथा निकालने की डयूटी भाई मनी
सिंघ जी की लगाई गई। भाई मनी सिंह जी ने दो पर्चियाँ, एक पर बंदई खालसे का जँगी नारा
फतेह दर्शन और दूसरी पर वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह लिखकर हरि की पउड़ी,
अमृतसर के सरोवर में फिकँवाईं। निर्णय हो चुका था कि जिसकी पर्ची पहले तैरकर ऊपर आ
जायेगी वही प्रबंध का अधिकारी होगा। कुदरत का खेल क्या हुआ कि कुछ समय तक दोनों
पर्चियां ही डुबी रहीं। सबने अरदास की। श्री अमृतसर सरोवर की ओर एक टकटकी लगाकर
सम्पूर्ण खालसा देख रहा था। आखिर वाहिगुरू जी का खालसा वाहिगुरू जी की फतेह वाली
पर्ची ऊपर आई और तैरने लगी। इस प्रकार भाई मनी सिंघ जी की बुद्धिमानी से झगड़ा
समाप्त हुआ और भाईयों के हाथों भाईयों का खून होने से बच गया।