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5. जक्रिया खान और सिक्ख-5

जक्रिया खान ने सम्राट को सिक्खों की वीरता से अवगत करवाया
जेहादियों की पराजय के पश्चात् पँजाब के राज्यपाल को अपने पिता अब्दुलसमद की नीतियाँ उचित जान पड़ी, वह सोचने लगा कि सिक्ख लोग दमनचक्र चलाने से और अधिक फलते-फूलते हैं। यदि इनको किसी कूटनीति से वश में कर लिया जाए तो हो सकता है कि पँजाब में फैली अराजकता समाप्त हो जाए और आतँक अथवा रक्तपात से राहत मिले। अतः उसने सम्राट को सिक्खों के साथ लम्बे संघर्ष के लिए और जेहादियों की हुई धुनाई, का समाचार भी भेजा, आगामी नई नीति के लिए परामर्श माँगा और अपने कूटनीतिक विचार लिख भेजे कि दमनचक्र के स्थान पर कुछ ले-देकर स्थाई शान्ति स्थापित की जाए। सम्राट ने जक्रिया खान द्वारा भेजी गई सूचनाओं को सभी दरबारियों के समक्ष रखा, परन्तु दरबारियों को सिक्खों की वीरता पर सँदेह हुआ। वे प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहते थे। अतः इसके समाधान हेतु उन्होंने कुछ भाँड लोग बुलवाए जो पँजाब से सम्बन्ध रखते थे। उन्हें कहा गया कि वे लोग सिक्खों की वीरता और उनके जीवनचरित्र का चित्रण करें। इस पर भाँड लोगों ने बादशाह से कहा कि हजूर दृश्य चित्रण करते समय बहुत ही गुस्ताखी अवज्ञा पूर्ण व्यँग्य हो सकता है। अतः आप उसके लिए अग्रिम क्षमा याचना स्वीकार करें। बादशाह ने उनकी बात स्वीकार कर ली। कुछ दिनों की तैयारी के पश्चात् दिल्ली दरबार में एक विशेष विशाल मँच पर भाँड लोगों ने एक विशेष नाटक का मँचन किया। एक तरफ विभिन्न आयु के सिक्ख जिनकी सँख्या सीमित रखी गई, इनके वस्त्र पुराने और फटे हुए, शस्त्र भी पुराने और टूटे हुए। दूसरी तरफ शाही फौजियों के रूप में वर्दीधारी हष्ट-पुष्ट जवान, पूर्णतः अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित और सँख्या में तीन गुना।

दृश्य प्रारम्भ: घने जँगलों में भूखे सिक्ख, वह भूख मिटाने के लिए कँदमूल का आहार कर रहे होते हैं। सिक्खों की खोज में तभी शाही फौज मँच पर प्रवेश करती है। उन्हें देखकर सिक्ख तुरन्त युद्ध लड़ने के लिए ‘जैकारा बुलन्द’ करते हैं ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ और सतर्क होकर अपने पुराने टूटे-फूटे शस्त्र से मुगलों पर आक्रमण कर देते हैं। दूसरी तरफ सरकारी सैनिकों का यह विचार था कि हम इन थोड़े से सिक्खों को सँख्या के बल से दबोच लेंगे। परन्तु यहाँ तो सिक्ख जीवन और मृत्यु से सँघर्ष करने के लिए अपनी अन्तिम रक्त की बूँद तक लड़ मरने को तैयार बैठे हुए हैं। जल्दी ही शाही फौजी अपनी यह दशा देखकर कि उनकी जान पर बन आई है, रक्षात्मक युद्ध लड़ना प्रारम्भ कर देते हैं। युद्ध में शाही सैनिक मरना नहीं चाहते, वे अपने घायलों और मृत जवानों के शवों को देखकर साहस त्याग देते हैं किन्तु सिक्ख मुत्यु अथवा विजय का लक्ष्य लेकर लड़ने-मरने में कोई कोर-कसर नहीं रहने देते। घायल सिक्ख भी पुनः शत्रु के शस्त्र छीनकर लड़ मरने के लिए बार-बार जै घोष करता हुआ धावा करता ही चला जाता है, जब तक कि उसके प्राण पँखेरू नहीं उड़ जाते। कुछ समय का घमासान युद्ध लड़ने के बाद सरकारी सैनिकों के पैर उखड़ जाते हैं और वे अपने मृत अथवा घायलों को वहीं छोड़कर भाग खड़े होते हैं, इस युद्ध के दृश्य में आधे सिंघ मारे जाते हैं परन्तु बाकी बचे हुए सिक्खों का मनोबल बहुत ऊँचा है, उनको बहुत से अच्छे अस्त्र-शस्त्र व घोड़े हाथ लगते हैं, वे धैर्य नहीं छोड़ते और अपनी फतह का श्रेय अपने गुरू को देते हुए उस का धन्यवाद करते हैं। राजदरबारियों ने यह दृश्य देखा तो वे अपने कायर व बुजदिल फौजियों को कोसने लगे। परन्तु यह कड़वा सत्य था, जो कि सभी को स्वीकार करना पड़ा। अन्त में बादशाह ने निर्णय लिया कि सिक्खों से किसी प्रकार कोई नई संधि कर ली जाए और विद्रोह समाप्त होना चाहिए।

पँजाब प्रशासन की सिक्खों से संधि के लिए विवशता
जब सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला ने भांडों द्वारा सिक्खों की वीरता के स्वाँग देखे तो उसने पँजाब के राज्यपाल जक्रिया खान को कूटनीति के अन्तर्गत किसी भी विधि से सिक्खों को वश में करने का परामर्श लिख भेजा, क्योंकि अब्दुलसमद खान की तरह जक्रिया खान भी सिक्खों को बाहुबल से अपने अधिकार में लाने में असफल रहा था। इस पर जक्रिया खान ने सिक्ख सरकारी ठेकेदार सरदार सुबेग सिंघ को अपने विश्वास में लिया और उसे अपना वकील बनाकर सिक्खों को एक संधि का विशेष मसौदा भेजा जिसके अन्तर्गत समस्त सिक्ख पँजाब में कहीं भी खुले रूप में विचरण करते हुए अपने गुरूधामों की देखरेख व सेवा सम्भाल कर सकेंगे और उनके नेता को नवाब की उपाधि प्रदान की जाएगी। इसके साथ दीयालपुर, कँगनवाल और मवाल क्षेत्र जिनकी आय एक लाख रूपये वार्षिक है, जागीर रूप में दिये जाते हैं। बदले में सिक्ख लोग प्रदेश में शान्ति बनाए रखेंगे और किसी प्रकार का उत्पात नहीं करेंगे। जब ठेकेदार सरदार सुबेग सिंघ जी सशस्त्र सिंघों के जत्थेदारों को खोजते हुए श्री अमतृसर साहिब जी पहुँचे। यहाँ से उन्होंने सभी सिक्खों के बिखरे हुए जत्थों को श्री अमतृसर साहिब जी एकत्रित होने का निमँत्रण भेजा। वहीं सुबेग सिंह जी ने खालसे के दरबार में प्रशासन की तरफ से प्रस्ताव रखा और अपनी ओर से विनती की कि समस्त खालसा जी को अब शान्ति बनाये रखने के लिए एक लाख की जागीर व नवाबी की उपाधि स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस समय खालसा जी के विशेष दरबार में कुछ विशिष्ट मान्यवर व्यक्ति विराजमान थे। जत्थेदार दरबारा सिंघ जी, संगत सिंह खजानचीं, हरी सिंह लाँगरी (भण्डारा अध्यक्ष), भगत सिंह मोदी, बुडढा सिंह देसी, हरदित्त सिंह, गरजा सिंह, सजन सिंह, ईशर सिंह, ज्ञान सिंह, साधू सिंह व देव सिंह इत्यादि सुशोभित थे। सभी ने बहुत गम्भीरतापूर्वक इस प्रस्ताव पर विचार किया, परन्तु सभी एकमत थे कि प्रशासन पर दूरगामी भरोसा नहीं किया जा सकता और जत्थेदार दरबारासिंह जी का कहना था कि हम किसी से भीख में जागीरी का पट्टा क्यों लें। जबकि हमें हमारे गुरूदेव वरदान दे गए हैं कि खालसे का तेज प्रताप बढ़ता ही चला जाएगा और खालसा समस्त लोगों के हृदय पर शासन करेगा और वह दिन दूर नहीं जब सत्ता भी हमारे हाथ में ही होगी।

इस प्रकार उन्होंने गुरूदेव के शब्द दोहरायेः राज करेगा खालसा, आकी रहे न कोय। इसके अतिरिक्त उन्होंने कहा कि गुरूदेव का कथन हैः कोई किसी को राज न दे है, जो लेहै निज बल से ले है। यह वक्तव्य सुनते ही सभी सरदार एक मत हो गए और नवाबी का पट्टा स्वीकार करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर सरकारी वकील सरदार सुबेग सिंह ने कहा कि खालसा जी यदि कोई समय आपको शान्ति का नसीब होता है तो आप इसे अपने हित में प्रयोग कर सकते हैं और आप अपना पुनर्गठन करके नई परिस्थितियों के अनुकूल अपने आप को ढाल सकते हैँ ऐसा करने में शान्तिकाल सहायक बनेगा और कोई बाधा न रहेगी। भले ही आप स्वयँ नवाबी स्वीकार न करें। आप अपने किसी सेवक को यह उपाधि देकर कृतार्थ (निवाजें) करे। परन्तु घर में आई खुशियों के शुभ अवसर को ठुकराना नहीं चाहिए। क्या पता, पँथ का इसी में भला हो ? इस विचार ने खालसा जी को पुनः इस प्रस्ताव पर विचार करना पड़ गया। उस समय नवाबी की उपाधि का पट्टा कोई स्वीकार करने के लिए तैयार न था। अन्त में उन्होंने अपने जत्थे के एक सेवक को यह पट्टा स्वीकार करने को कहा। उस व्यक्ति का नाम सरदार कपूर सिंह था, यह उस समय इस सम्मेलन में विराजमान सभी संगत को पँखा करके उन्हें गर्मी से राहत दिलवा रहा था। सेवादार कपूर सिंह निष्काम सेवक था। उसने समस्त सिक्ख पँथ से आग्रह किया कि वह तुच्छ व्यक्ति इस उपाधि के योग्य नहीं, उसे तो केवल सेवा ही मिली रहने दीजिए। परन्तु उसकी विनम्रता को देखकर वहाँ उपस्थित सज्जनों ने उनको खालसा पँथ की तरफ से आदेश दिया कि वह नवाबी की उपाधि स्वीकार कर ले। इस पर सरदार कपूर सिंह जी ने कहा कि ‘मैं आपके आदेश की उलँघना नहीं कर सकता, परन्तु यह मैं तब स्वीकार करूँगा, जब नवाबी वाले पत्र (खिलत) को पाँच प्यारे अपने चरणों से स्पर्श करके मुझे देंगे। ऐसा ही किया गया। जैकारों की गूँज में कपूर सिंघ सेवादार से नवाब बन गए, इस पर सरदार कपूर सिंह जी ने अपने गले में ‘परना’ डालकर फिर से पँथ के आगे विनती की कि मुझे आप उन सेवाओं से वँचित नहीं करेंगे जो मैं अब तक करता आया हूँ, जैसे घोड़ों की लीद उठाना, पानी ढोना इत्यादि। खालसा जी ने सहर्ष यह बात स्वीकार कर ली। अब समस्त खालसा पँथ सरदार सुबेग सिंह से मुखातिब हुआ और उनको प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे और पूछा कि आप शत्रु पक्ष के वकील क्यों बनकर आए और आप उन सत्ताधारियों के साथ क्यों सहयोगी बने रहते हो, जो सिंघों को यातनाएँ देकर शहीद करते रहते हैं ? इसके उत्तर में सरदार सुबेग सिंह जी ने तभी हाथ जोड़ कर पँथ से क्षमा माँगते हुए कहा कि मैंने कई अवज्ञाएँ की हैं। अतः मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए परन्तु मेरी अवज्ञा पँथ के हित में जाती है। मैं समय-समय पर शत्रु पक्ष को सूझबूझ से काम लेने के लिए विवश करता हूँ, नहीं तो वहाँ अनेकों सम्प्रदाय विषों से भरे हुए द्वेषी मनुष्य हैं जो सदैव खालसा पँथ का अनिष्ट करने की सोचते रहते हैं। इस विनम्र भाव को देखकर पँथ ने सुबेग सिंह जी को छूट देते हुए तनख्हा (दण्ड) लगा दी और उन्हें क्षमा कर दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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