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3. जक्रिया खान और सिक्ख-3

सिक्खों द्वारा शाही खजाना लूटना
भाई तारा सिंह ’वां’ गाँव के जत्थे की वीरता के समाचार जब समस्त सिक्ख जगत में फैले तो सिक्खों में एक नई स्फूर्ति ने जन्म लिया, प्रत्येक सिक्ख आत्मगौरव से जीने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सदैव तत्पर दिखाई देने लगे। गुप्तवास में जीवन व्यतीत कर रहे कई सिक्ख प्रत्यक्ष अस्त्र-शस्त्र धारण करके छोटे-छोटे दलों में विचरण करने लगे। जो लोग समूहों में दूर-दराज के क्षेत्रों में चले गए थे, वे लौट आए। विशेषकर रावी नदी के डेल्टा क्षेत्र जिसको स्थानीय भाषा में काहनूँवाला का ढाबा कहते थे। यहाँ अनगिनत जत्थेदार दरबारा सिंह के नेतृत्त्व में बहुत बड़ी सँख्या में सिक्ख योद्धा एकत्रित होकर शुभ समय की ताक में घात लगाने के चक्कर में निवास करते थे। दूसरी तरफ सिक्खों की वीरता की गाथाएँ सुनकर पँजाब के युवक जो मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित थे, जल्दी ही अमृतधारण करके सिक्खों के जत्थों में सम्मिलित होने लगे। इस समय इन नवयुवकों को अस्त्र-शस्त्रों के लिए धन की अति आवश्यकता थी। अतः इनके जत्थेदार दरबारा सिंह जी ने एक योजना बनाई कि सरकारी सम्पत्ति अथवा खजाने लूट लिए जाएँ। बस फिर क्या था, इन युवकों ने प्रसिद्ध कँधारी सौदागर मुर्लजा खान से वे घोड़े मार्ग में ही छीन लिए जो वह मुगल बादशाह के लिए दिल्ली ले जा रहा था। इस गोरिल्ला युद्ध से बहुत से शाही सैनिक भी मारे गए। जब शाही सेना ने इन सिक्खों का पीछा किया तो वे रावी नदी के बीहड़ों में जा छिपे, सरकारी सेना वहाँ पहुँचने में अपने को असमर्थ पा रही थी। जिन मुगल सिपाहियों ने इनका पीछा किया, वह लौट कर नहीं आए क्योंकि वह जँगलों में खो गए और कंटीली झाड़ियों में उलझकर शत्रु के झाँसे में फँसकर मारे गए।

कुछ दिनों पश्चात् ही जत्थेदार दरबारा सिंह जी के दल को सूचना मिली कि चविंडा थाने की तरफ से शाही खज़ाना, जो कि लगान रूप में एकत्रित किया गया है, लाहौर भेजा जा रहा है। तुरन्त दल ने इस खज़ाने के लूटने की योजना बनाई। उन्होंने एक सुरक्षित क्षेत्र देखकर वहाँ घात लगाकर बैठ गए, जैसे ही शत्रु सेना खज़ाने के साथ वहाँ से गुजरने लगी, अकस्मात् उन पर सिक्खों ने धावा बोल दिया। शाही सैनिक इस खूनखराबे के लिए तैयार न थे, वे शीघ्र ही जान बचाकर भाग खड़े हुए। इस प्रकार बहुत बड़ी धनराशि सिक्खों के हाथ आ गई। इसी प्रकार उन्हीं दिनों जत्थेदार दरबारा सिंह जी को काहनूँवाल के छँबां क्षेत्र में उनके गुप्तचर द्वारा सूचना दी गई कि मुलतानपुर प्रान्त से दिल्ली के लिए शाही खजाना भेजा जा रहा है, जिसे सुरक्षा प्रदान करने के लिए वहाँ के राज्यपाल अब्दुलसमद खान ने लाहौर के राज्यपाल जक्रिया खान को लिखा है। अतः आप खजाना उड़ाने के लिए तैयार रहे। बस फिर क्या था। दरबारा सिंह जी ने बहुत सूझबूझ से एक योजना बनाई। इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए अपने जवानों को दो भागों में विभाजित कर दिया। प्रथम दल ने खज़ाने की सुरक्षा कर रहे सिपाहियों पर धावा बोलना है, जब विरोधी दल दृढ़ स्थिति में आ जाए तो तुरन्त भागने का अभिनय करना है। दूसरे दल ने, जब शाही सिपाही प्रथम दल को पराजित करने के लिए उनका पीछा करें तो उसी समय शुभ अवसर देखकर शाही खजाना लूटना है। ऐसा ही किया गया। जरनैली सड़क पर सिक्ख योद्धा दो दलों में विभाजित होकर घात लगाकर बैठ गए। जब खज़ाने के सुरक्षाकर्मी पास में पहुँचे तो इन्होंने उन पर अकस्मात् आक्रमण कर दिया और ऊँचे स्वर में जयकारे लगाए।

जब मुगल फौजी मुकाबले के लिए आमने सामने हुए तो सिक्ख अपनी पहले से निश्चित नीति अनुसार भाग खड़े हुए, शत्रु झाँसे में आ गया, वे सिक्खों का पीछा करने लगे। तभी दूसरे दल ने आकर समस्त खज़ाना कब्जे में लिया और जँगलों में खज़ाना पहुँचा दिया। जब मुगल सैनिक वापिस लौटे तो उनको अपनी भूल का अहसास हुआ। तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वे सिक्खों के पहले दल का पीछा करते हुए थक हार चुके थे और अब उनमें घने जँगलों में सिक्खों के पीछे जाने का साहस नहीं था। इस प्रकार इस बार सिक्खों के हाथ लगभग चार लाख रूपये नकद लगे। इस धन से सिक्खों ने अपने को आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर लिया और अपना पुनर्गठन करके अपने कार्यक्षेत्र को बढ़ा लिया। अब सिक्खों के पास धन का अभाव न था। अतः वह दीन-दुखियों तथा जरूरतमँदों की सहायता भी करने लगे। इस प्रकार उन्होंने पड़ौस के प्रान्त-देहातों के लोगों का मन जीत लिया, जिससे उनको नई भर्ती भी मिलने लगी। अब सिक्खों ने प्रशासन को आर्थिक क्षति पहुँचाने की कई और योजनाएँ बनानी आरम्भ कर दी, जिससे सरकार का दिवाला निकल जाए और वह बुरी तरह असफल होकर गिर पड़े। वैसे ही सत्ताधरी बौखलाए हुए थे। वह भी सिक्खों के सदा के लिए समाप्त करने की योजनाएँ बनाने लगे थे। परन्तु उनका कोई भी उपाय सफल नहीं हो रहा था। वह प्रत्येक प्रकार की गतिविधियाँ कर चुके थे। उन्होंने सिक्खों को विद्रोही घोषित करके पकड़े गए सिक्खों को बहुत बुरी यातनाएँ देकर शहीद किया था परन्तु ऐसा करने से वे बहुत बदनाम हुए थे और सत्ताधारियों के अत्याचारों की करूणामय गाथाएँ सुनकर लोगों की सहानुभूति सिक्खों के प्रति बढ़ती ही जा रही थी। कुछ जोशीले युवक स्वयँ को सिक्खों के दलों में मिलाने के लिए लालायित रहने लगे थे। वह समय मिलते ही घर से भागकर सिंघ सजने लगे थे और अपनी वीरता के जौहर दिखाने के लिए किसी अवसर मिलने की ताक में रहने लगे थे। ऐसे में यह युवक कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते, बस उन्हें तो किसी मार्गदर्शन अथवा नेतृत्त्व की आवश्यकता ही रहती। एक दिन इन युवकों को सूचना मिली कि प्रशासन किसानों से लगान एकत्रित करके लाहौर पहुँचाने के प्रयास में लगा हुआ है। बस फिर क्या था, उन्होंने जत्थेदार दरबारा सिंह जी को विश्वास में लिया और उनकी अध्यक्षता में योजनाएँ बनाकर मुहिम को निकल पड़े। तभी उनको समाचार मिला कि कसूर तथा चूनियाँ नगरों का लगान प्रान्त की राजधनी लाहौर भेजा जा रहा है। इन जवानों ने समय रहते खजाने के सँतरियों को रास्ते में ही घेर लिया और छोटी-छोटी झड़पों में ही खजाना लूटने में सफल हो गए। उस खजाने को लेकर काहनां-काछा क्षेत्र में सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। इन घटनाक्रमों से प्रशासन की नाक में दम आ गया। सत्ताधरी बार-बार सोचने पर विवश हो जाते कि सिक्खों से किस प्रकार पीछा छुड़वाया जाए अथवा उनसे निपटा जाए। एक बार भूल से सरकारी सम्पत्ति जानकर कश्मीर से दिल्ली जा रहे माल को रास्ते में सिक्ख जवानों ने लूट लिया, जब मालूम हुआ कि यह माल व्यापारी प्रतापचन्द स्यालकोट वाले का है तो माल तुरन्त वापिस लौटा दिया गया। इस माल में पश्मीने की शालें व कम्बल थे। शीत ऋतु के कारण यह सभी माल उस समय स्वयँ सिक्खों को भी चाहिए था, किन्तु उस समय उन्होंने विचार किया, इस छीनाझपटी में गरीब की मार हो जाएगी जो कि हमारे आत्मगौरव व आचरण के विरूद्ध है। अतः उन्होंने केवल और केवल सत्ताधारियों को विफल करने हेतु ही अपना सँग्राम सीमित रखा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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