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12. जक्रिया खान और सिक्ख-12

भाई तारू सिंघ जी
सन् 1745 ईस्वी तक पँजाब में राज्यपाल जक्रिया खान का बड़ा तेज प्रताप था। इसके शासनकाल में लगभग मांझा क्षेत्र (पँजाब) के सभी सिक्ख नागरिक पँजाब राज्य से पलायन कर चुके थे। गश्ती सैनिक टुकड़ियों द्वारा खोज-खोजकर सिक्खों की हत्या करने से कई सिक्ख परिवार लखी जँगल, मँड क्षेत्र (सतलुज तथा व्यास नदी का सँगम स्थल) तथा कानोवाल का छम्ब क्षेत्र (डेल्टा क्षेत्र) के उन विरानों में जा छिपे थे, जहाँ सेना का पहुँचना सहज नहीं था। जक्रिया खान के सिक्ख विरोधी अभियान के कारण कुछ सिक्ख परिवार कठिन समय व्यतीत करने के विचार से अपने घरों को त्यागकर निकट के जँगलों में भी शरण लिए हुए थे। ऐसे में एक सिक्ख परिवार जिला श्री अमृतसर साहिब जी के गाँव पूहले में निवास करता था। 25 वर्षीय तारू सिंघ, उसकी छोटी बहन तथा माता, यह तीन सदस्य का परिवार भक्ति भावना के कारण समस्त क्षेत्र में बहुत आदर से जाने जाते थे। भाई तारू सिंह ने विवाह नहीं करवाया था, वह बहुत परिश्रमी और दयालु प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसके यहाँ सदैव लँगर चलता रहता था, कोई भी यात्री अथवा भूखा-प्यासा, जरूरतमँद बिना भेदभाव के भोजन प्राप्त कर सकता था। अतः गाँव निवासी क्या हिन्दू क्या मुसलमान उसकी इस उदारवादी प्रवृत्ति से सन्तुष्ट थे और सभी गाँववासी मिलजुल कर रहते थे। भाई तारू सिंघ जी को एक सूचना मिली कि निकट के जँगलों (बाबा बुड्ढा जी की बीड़) में कुछ सिक्ख परिवारों ने शरण ले रखी है। उन्होंने विचार किया कि जँगल में तो केवल कँदमूल फल ही हैं। अतः बच्चे अथवा बुड्ढे किस प्रकार भोजन व्यवस्था करते होंगे, इसलिए उन्होंने अपनी माता तथा बहन से विचार करके एक योजना बनाई कि वे सभी मिलकर लँगर तैयार करते और प्रातःकाल भाई तारू सिंह जी सिर पर रोटियों की टोकरी और हाथ में दाल की बाल्टी लेकर घने जँगल में चले जाते, वहाँ पहुँचकर सीटी के सएकेत से सभी को एकत्रित करते और उनमें वह लँगर बाँट देते।

इस प्रकार यह कार्य भाई जी नियमित रूप से करने लगे थे। परन्तु इनाम के लालच में एक मुखबर (जासूस) ने जिसका नाम हरिभक्त निरँजनीया था। लाहौर में जक्रिया खान को भाई तारू सिंह के विषय में झूठी मनघंड़त कहानी भेजी कि भाई तारू सिंह विद्रोहियों को पनाह देता है और उनकी सहायता करता है, जिससे गाँव निवासियों को ख़तरा है जक्रिया खान तो ऐसी सूचना की ताक में रहता था, उसने आरोपों की बिना जाँच किए, तुरन्त भाई साहिब जी को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। हरिभक्त निरँजनियां 20 फौजी लेकर गाँव में आ धमका और भाई साहिब जी को गिरफतार कर लिया तथा बेईमान फौजी तारू सिंह जी की युवा बहन और उनकी माता को भी गिरफ्तार करना चाहते थे, परन्तु सभी गाँव वाले ने एकता के बल से जब इसका विरोध किया तो उनका बस न चला। लाहौर की जेल में भाई जी को बहुत यातनाएँ दी गईं और उन पर दबाव डाला गया कि वह इस्लाम कबूल कर लें। अन्त में जब उनको जक्रिया खान के सामने पेश किया गया तो भाई जी ने उससे पूछा: नवाब ! बता मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है ? मैं एक किसान होने के नाते तुझे पूरा लगान देता हूँ। मैंने आज तक कोई अपराध किया ही नहीं, फिर तू मुझे को इतने कष्ट क्यों दे रहा है ? जक्रिया खान के पास भाई तारू सिंघ जी के प्रश्नों का उत्तर था ही नहीं। उसने इतना ही कहा: यदि तुम लँगर बाँटना बन्द कर दो और इस्लाम कबूल कर लो तो तुझे क्षमा किया जा सकता है। भाई तारू सिंह ने उत्तर दिया: लँगर मैं अपनी ईमानदारी की कमाई में से बाँटता हूँ, इस बात से हुकूमत को क्या परेशानी है ? रही बात इस्लाम की, तो मुझे सिक्खी प्यारी है, मैं अपने अन्तिम श्वाश तक उसे निभा कर दिखाऊँगा। इस पर जक्रिया खान ने क्रोध में आकर कहा कि: इस सिक्ख के बाल काटो, देखता हूँ, यह कैसे सिक्खी निभाने का दावा करता है। तभी नाई बुलाया गया और वह भाई तारू सिंह के केस काटने लगा, परन्तु भाई तारू सिंह ने उसे अपनी हथकड़ियों का मुक्का दे मारा, वह लड़खड़ाता हुआ दूर गिरा। तब भाई जी को जँजीरों से बाँध दिया गया। इस पर तारू सिंह जी ने मन को एकचित कर प्रभु चरणों में प्रार्थना की कि हे प्रभु ! मेरी सिक्खी केशों-श्वासों के साथ निभ जाए, अब तेरा ही सहारा है बस फिर क्या था, तारू की प्रार्थना स्वीकार हुई, जैसे ही नाई ने उनके केश काटने का प्रयास किया, भाई जी के केश कटते ही नहीं थे। नाई ने बहुत प्रयास किया परन्तु बाल नहीं कटे।

इस पर जक्रिया खान ने कहा: ठीक है, मोची बुलाओ, जो इसकी बालों सहित खोपड़ी उतार दे। ऐसा ही किया गया, भाई जी की खोपड़ी उतार दी गई और उन्हें लाहौर के किले के बाहर नरवास चौक पर बैठा दिया गया कि सभी स्थानीय निवासी देख सके कि प्रशासन सिक्खों को किस बूरी विधि से मौत के घाट उतारता है, ताकि कोई फिर सिक्ख बनने का साहस न कर सके। भाई तारू सिंह जी ने प्रभु का धन्यवाद करने के लिए अपना मन सकाग्र कर लिया और चिंतन मनन में व्यस्त हो गए। उनका विश्वास था कि उनकी सिक्खी प्रभु कृपा से केशो-श्वासों के साथ निभ गई है। रात भर वह वहीं प्रभु चरणों में लीन रहे। अगले दिन जब सूर्य उदय हुआ तो जक्रिया खान किसी कार्यवश घोड़े पर सवार होकर किले से बाहर आया तो उसने भाई जी को जब जीवित पाया। तो कहने लगा: तारू सिंह ! अभी तुम्हें मौत नहीं आई ? इस पर भाई जी ने आँखें खोली और कहा: जक्रिया खान तुम्हारे साथ दरगाह में हिसाब करना है, इसलिए तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, अतः तुम्हें लेकर चलूँगा। बस फिर क्या था, जक्रिया खान का पेशाब बन्द हो गया और पेट में शूल उठने लगा। वह मारे दर्द के चिल्लाने लगा। उसका शाही हकीमों ने बहुत उपचार किया परन्तु उसका दर्द बढ़ता ही चला गया। ऐसे में उसको भाई तारू सिंह जी के कहे हुए वचन याद आए कि मैं तेरे साथ अल्लाह की दरगाह में हिसाब करूँगा, इसलिए तुझे साथ ले जाने के लिए जीवित हूँ। मरता क्या नहीं करता, के कथन अनुसार जक्रिया खान ने भाई तारू सिंह के पास अपने प्रतिनिधि भेजे और क्षमा याचना की। इस पर भाई जी ने उन्हें कहा: मेरे जूते ले जाएँ, और जक्रिया खान के सिर पर मारें, पेशाब उतरेगा, ऐसा ही किया गया। जैसे-जैसे भाई जी के जूते से जक्रिया खान को पीटा जाता, उसका पेशाब उतरता और पीड़ा कम होती, परन्तु जूते का प्रयोग बन्द करने पर पीड़ा फिर वैसी हो जाती। अतः जक्रिया खान ने विवशता में कहा कि मेरे सिर पर तारू सिंह का जूता जोर-जोर से मारो, ताकि मुझे पेशाब के बँधन से पूर्ण राहत मिले। उसकी इच्छा अनुसार पूरे वेग से उसके सिर पर जूतों की बोछार की गई। वैसे ही पूरी गति के साथ मूत्र बन्धन टूटा और जक्रिया खान की पीड़ा हटती गई, परन्तु इसके साथ ही जक्रिया खान के प्राण भी निकल गए। दूसरी ओर भाई तारू सिंघ जी ने भी नश्वर देह त्याग दी और गुरू चरणों में जा विराजे।
इस प्रकार कुछ समय के लिए अत्याचारों का बाज़ार ठण्डा पड़ गया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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