SHARE  

 
jquery lightbox div contentby VisualLightBox.com v6.1
 
     
             
   

 

 

 

10. जक्रिया खान और सिक्ख-10

सिक्खों द्वारा किले का निर्माण
नादिरशाह के आक्रमण के कारण फैली बेचैनी से लाभ उठाने के लिए दल खालसा के नायक नवाब कपूर सिंह जी ने सिक्खों के लिए किसी सुरक्षित स्थान की कल्पना की। जब उनके हाथ नादिर की लूट का माल लगा तो उन्होंने उसे सुरक्षित करने के लिए उस कल्पना को साकार रूप दे दिया। उनके निर्देश अनुसार डल्लेवाल नामक स्थान पर एक किले का निर्माण किया गया। यह स्थान अमृतसर की उत्तर-पश्चिम दिशा में रावी नदी के तट पर स्थित है और इसके ईद-गिर्द घने जँगल थे। इस स्थल के चुनाव में बड़ी गहरी कूटनीति छिपी हुई थी। एक तो वहाँ से सिक्खों के पवित्र तीर्थ की रक्षा की जा सकती थी, दूसरे आवश्यकता पड़ने पर सिक्ख सैनिक वहाँ पर आश्रय भी ले सकते थे। मुगल सरकार के जासूस भी इस रहस्य से भली भान्ति परिचित थे। भले ही मुगल किलों की तुलना में सिक्खों का यह किला एक तुच्छ सा स्थान था, तथापि यह इस बात का सूचक था कि अपनी राजनैतिक सत्ता स्थापित करने के लिए सिक्ख दूरदृष्टि रखते हैं और आने वाली कठिनाइयों के लिए सजग थे। जैसे ही नादिरशाह ने जक्रिया खान को सिक्खों के विरूद्ध भड़काया कि वह तेरी सत्ता हड़प सकते हैं, बस फिर क्या था, वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति से सिक्खों को उखाड़कर पँजाब से बाहर करने में लग गया। जैसे ही उसे डल्लेवाल के किले के निर्माण की सूचना मिली, उसने उस पर आक्रमण कर दिया परन्तु वह तो अभी निर्माणाधीन ही था, सिक्ख उसका प्रयोग कर ही नहीं सकते थे। अतः उस क्षेत्र को विराना छोड़कर सिक्ख फिर से अन्य शरण स्थलों में चले गए। जिससे जक्रिया खान ने अधूरे किले को फिर से मिट्टी में मिला दिया।

भाई बोता सिंघ जी तथा भाई गरजा सिंघ जी
नादिरशाह के भागने के पश्चात् जब जक्रिया खान ने सिक्ख सम्प्रदाय के सर्वनाश का अभियान चलाया तो उसने सभी अत्याचारों की सीमाएँ पार कर दीं। जब पँजाब में कोई भी सिक्ख ढूँढने से भी न दिखाई दिया तो उसने इसी प्रसन्नता में दोंडी पिटवाई की कि हमने सिक्ख सम्प्रदाय का विनाश कर दिया है। अब किसी को भी विद्रोही दिखाई नहीं देंगे। इन्हीं दिनों लाहौर नगर के निकट गाँव भड़ाण का निवासी श्री बोता सिंघ अपने मित्र गरजा सिंघ के साथ श्री दरबार साहिब जी के सरोवर में स्नान करने के विचार से घर से चल पड़े परन्तु सिक्ख विरोधी अभियान के भय से वे दोनों रात को यात्रा करते और दिन में किसी झाड़ी अथवा विराने में विश्राम करके समय व्यतीत करते। पहले उन्होंने श्री तरनतारन साहिब जी के सरोवर में स्नान किया। फिर जब दिन ढ़लने के समय अमृतसर चलने के विचार से वे सड़क के किनारे की झाड़ियों की ओट से बाहर निकले तो उन्हें दो वर्दीधारी व्यक्तियों ने देख लिया। सिंघों ने उन्हें देखकर कुछ भय सा महसूस किया कि तभी वे पठान सिपाही बोले, यह तो सिक्ख दिखाई देते हैं ? फिर वे विचारने लगे कि ये सिक्ख हो नहीं सकते। यदि सिक्ख होते तो ये भयभीत हो ही नहीं सकते थे। वे सोचने लगे, क्या मालूम सिक्ख ही हो, यदि सिक्ख ही हुए तो हमारी जान खतरे में है, जल्दी यहाँ से खिसक चलें। परन्तु वे एक दूसरे से कहने लगे कि जक्रिया खान ने तो घोषणा करवा दी है कि मैंने कोई सिक्ख रहने ही नहीं दिया तो ये सिक्ख कहाँ से आ गए ? दोनों पठान सिपाही तो वहाँ से खिसक गए परन्तु उनकी बातों के सच्चे व्यँग्य ने इन शुरवीरों के हृदय में पीड़ा उत्पन्न कर दी कि जक्रिया खान ने सिक्ख समाप्त कर दिए हैं और सिक्ख कभी भयभीत नहीं होते ? इन दोनों योद्धाओं ने विचार किया कि यदि हम अपने को सिक्ख कहलाते हैं तो फिर भयभीत क्यों हो रहे हैं ? यही समय है, हमें दिखाना चाहिए कि सिक्ख कभी भी समाप्त नहीं किए जा सकते। अतः हमें कुछ विशेष करके प्रचार करना है कि सिंघ कभी भयभीत नहीं होते। बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने जरनैली सड़क पर एक उचित स्थान ढूँढ लिया, यह थी नूरदीन की सरां जिसे उन्होंने अपना बसेरा बना लिया और वहीं पास में एक पुलिया पर उन्होंने एक चुँगी बना ली, जिस पर वे दोनों मोटे सोटे (लट्ठ) लेकर पहरा देने लगे और सभी यात्रियों से चुँगीकर (टैक्स) वसूल करने लगे। उन्होंने घोषणा की कि यहाँ खालसे का राज्य स्थापित हो गया है, अतः बैलगाड़ी को एक आना तथा लादे हुए गधे का एक पैसा कर देना अनिवार्य है। सभी लोग सिक्खों के भय के कारण चुपके से कर देकर चले जाते, कोई भी व्यक्ति विवाद न करता परन्तु आपस में विचार करते कि जक्रिया खान झूठी घोषणाएँ करवाता रहता है कि मैंने सभी सिक्ख विद्रोहियों को मार दिया है। इस प्रकार यह दोनों सिक्ख लम्बे समय तक चुँगी रूप में कर वसूलते रहे, परन्तु प्रशासन की तरफ से कोई कार्यवाही नहीं हुई। इन सिक्खों का मूल उद्देश्य तो सत्ताधरियों को चुनौती देना था कि तुम्हारी घोषणाएँ हमने झूठी साबित कर दी हैं, सिक्ख जीवित हैं और पूरे स्वाभिमान के साथ रहते हैं। एक दिन बोता सिंह के मन में बात आई कि हम तो गुरू चरणों में जा रहे थे पवित्र सरोवर में स्नान करने, हम यहाँ कहाँ माया के जँजाल में फँस गए हैं। हमने तो यह नाटक रचा था, प्रशासन की आँखें खोलने के लिए कि सिक्ख विचित्र प्रकार के योद्धा होते हैं, जो मृत्यु को एक खेल समझते हैं, जिन्हें समाप्त करना सम्भव ही नहीं, अतः उसने प्रशासन को झँझोड़ने के लिए एक पत्र राज्यपाल जक्रिया खान को लिखा। पत्र में जक्रिया खान पर व्यँग्य करते हुए, बोता सिंह ने उसको एक महिला बताते हुए भाभी शब्द से सम्बोधन कियाः

चिट्ठी लिखतम सिंह बोता ।।
हाथ में सोटा, विच राह खलोता ।।
महसूल आना लगये गड्डे नूं, पैसा लगाया खोता ।।
जा कह देना भाभी खानों नूं, ऐसा कहता है सिंह बोता ।।

बोता सिंह जी ने यह पत्र लाहौर जा रहे एक राहगीर के हाथ जक्रिया खान को भेज दिया। जब पत्र अपने गँतव्य स्थान पर पहुँचा तो राज्यपाल जक्रिया खान क्रोध के मारे लाल पीला हुआ किन्तु उसे अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था कि उसके लाख प्रयत्नों और सख्ती के बाद भी सिक्खों के हौंसले वैसे के वैसे बुलन्द थे। अतः उसने राहगीर से पूछा कि वहाँ कितने सिक्ख तुमने देखे हैं । इस पर राही ने बताया, हजूर ! वहाँ तो मैंने केवल दो सिक्खों को ही देखा है, जिनके पास शस्त्रों के नाम पर केवल सोटे हैं परन्तु जक्रिया खान को उसकी बात पर विश्वास ही न हुआ, वह सोचने लगा कि केवल दो सिंघ वह भी बिना हथियारों के इतनी बड़ी हकूमत को कैसे ललकार सकते हैं ? उसने जरनैल जलालुद्दीन को आदेश दिया, वह दौ सौ शस्त्रधारी घुड़सवार फौजी लेकर तुरन्त नूरदीन की सरां जाए, उन सिक्खों को, हो सके तो जीवित पकड़ कर लाए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
            SHARE  
          
 
     
 

 

     

 

This Web Site Material Use Only Gurbaani Parchaar & Parsaar & This Web Site is Advertistment Free Web Site, So Please Don,t Contact me For Add.