1. जक्रिया खान और सिक्ख-1
भाई तारा सिंह ‘वां’
सन् 1726 ईस्वी में अब्दुलसमद खान के पुत्र खान बहादुर जक्रिया खाँ ने पँजाब
प्रान्त के राज्यपाल का पद सँभाला और उसने लाहौर में सिक्खों के विरूद्ध
सुव्यवस्थित दमनचक्र की कार्यवाही करने की घोषणा कर दी। उन्हीं दिनों जिला श्री
अमृतसर साहिब तहसील तरनतारन के नौशहिरे क्षेत्र के गाँव ‘वां’ में भाई तारा सिंघ जी
निहंग रहते थे। उन्होंने अपना एक आश्रम बना रखा था, जहाँ वह यात्रियों की लँगर (निशुल्क
भोजन) से निस्वार्थ सेवा करते थे, उनके बहुत से खेत थे। वह कृषि से होने वाली आय
अतिथि सत्कार पर व्यय करते थे। इनके पूर्वजों ने श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी
के समय सिक्खी धारण की थी और उन्हीं की छत्रछाया में अमृत धारण किया था और गुरूदेव
जी के साथ कई युद्धों में भाग लिया था। भाई तारा सिंह का जन्म सन् 1702 ईस्वी में
श्री गुरदास सिंह के यहाँ हुआ। भाई तारा सिंह जी ने स्वयं सन् 1722 ईस्वी में भाई
मनी सिंह जी से अमृत धारण किया था। वे बहुमुखी प्रतिभावान थे। उनका व्यक्तित्व
मधुरभाषी, उज्ज्वल आचरण और मर्यादापालक था। वहीं आप एक योद्धा तथा विभिन्न प्रकार
के अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुण और अच्छे घुड़सवार भी थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी
कि वे गुरूवाणी के रसिया और भजनबंदगी में व्यस्त रहते थे। उनके आश्रम में सिक्खों
का आवागमन सदैव बना रहता था। वे समस्त प्राणीमात्र की निष्काम सेवा में विश्वास रखते
थे। बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में स्थानीय हिन्दू चौधरी साहिबराय ने अपने
क्षेत्र में सिक्खों के इस अड्डे को अपने लिए एक चुनौती माना। अतः वह बिना कारण
सिक्खों से ईर्ष्या करने लगा। इसी द्वेष भावना में उसने सिक्खों को परेशान करना
प्रारम्भ कर दिया। वह अक्सर सिक्खों के खेतों में अपने घोड़े अथवा मवेशी चरने भेज
देता। इस प्रकार सिक्खों की खेती बर्बाद हो जाती। इस बात को भाई तारा सिंह के
नेतृत्त्व में स्थानीय सिक्ख किसानों ने उठाया। इस पर चौधरी साहिब राय ने सिक्खों
को धमकी दी और कहा कि मेरी कृपा से ही तुम यहाँ बसे हुए हो, नहीं तो कभी के शाही
सेना की गश्ती टुकड़ियों के हाथों पकड़ लिए जाते और तुम लोगों पर विद्रोही (बागी) होने
का आरोप लगाकर तुम्हारी हत्या कर दी जाती। उत्तर में सिक्खों ने कहा कि हम लोग अपने
बलबूते अथवा प्रभु भरोसे रहते हैं, इसमें तुझे अहसान दिखाने की आवश्यकता नहीं है।
चौधरी ने अहँ भाव में आकर कहा कि मेरे पास रस्से नहीं हैं, मैं मवेशियों अथवा घोड़ों
को बाँध कर रखूँ, इसलिए तुम्हारे बालों को काटकर उसके रस्से बनाऊँगा फिर पशुओं को
तबोले में बाधूँगा। यह कटाक्ष सिक्खों के हृदय को चीर गया, उसने साहबराय चौधरी को
उन्हीं के घर से चलते समय यह चुनौती दी। अच्छा ! इस बार तुम हमारे खेत में घोड़े खुले
छोड़कर तो देखो, हम तुम्हें दो-दो हाथ दिखाएँगे और तुम्हारा घमण्ड ठीक कर देंगे।
इस घटना के पश्चात् भाई तारा सिंह जी ने समस्त क्षेत्र के सिंहों
की एक सभा बुलाई और चौधरी की करतूतों पर गम्भीरता से विचारविमर्श हुआ। इस सभा में
लगभग पचास सिक्खों ने भाग लिया। सभी सिक्खों का कहना था कि ‘हाथा बाज करारेयां वैसी
मित्र न होवे’ भाव शक्ति सँतुलन के बिना शान्ति कभी भी स्थापित नहीं हो सकती। सभी
ने परामर्श दिया कि हमें भी बदले में कड़े कदम उठाने चाहिए। इस पर सरदार अमर सिंह तथा
बघेल सिंह ने इस कार्य को करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। इन्होंने एक योजना
बनाई। चौधरी ने अपनी आदतों के अनुसार जैसे ही हमारे खेतों में घोड़े तथा मवेशी चरने
भेजे, उनको पकड़ लिया जाए और घोड़ों को दूर किसी धनाढ़य व्यक्ति के पास बेच दिया जाए।
यह शुभ अवसर उन्हें शीघ्र ही मिल गया। एक दिन चौधरी साहबराय ने अपने स्वभाव अनुसार
मवेशी और घोड़े सिक्खों के खेतों में चरने भेज दिए। पशुओं ने गेहूँ की खेती बर्बाद
कर दी। इस पर सिक्खों ने घोड़ों को तो पकड़ लिया और मवेशियों को पीट पीटकर भगा दिया।
इस पर साहबराय ने घमण्ड में अपने लठ्ठरधरियों की सेना लेकर सिक्खों के साथ लड़ने चला
आया। पहले ही से सतर्क सिक्खों ने उसके सभी लठ्धरियों को धमकाकर भगा दिया और साहब
राय को पकड़कर वहीं खेतों में पटककर खूब धुनाई की और उनसे पूछा कि अब बता, हमारे केश
कौन काटने की क्षमता रखता है। इस धुनाई को चौधरी साहब ने अपना बहुत बड़ा अपमान समझा,
सिक्खों ने उसकी घोड़ियाँ भी न लौटाई और उसे कह दिया कि खेतों की क्षतिपूर्ति के रूप
में घोड़ियाँ हमारी हुईं। ये घोड़ियाँ सरदार अमर सिंह ने लखबीर सिंह को सौंप दी।
उन्होंने ये घोड़ियाँ पटियाला के सरदार आला सिंह को बेच दी और वह धनराशि भाई तारा
सिंह के कोष में डाल दी अथवा उनके अस्त्र-शस्त्र खरीद लिए। चौधरी साहबराय अपमान का
बदला लेने के लिए पट्टी क्षेत्र के फौजदार जाफरबेग के पास अपनी फरियाद लेकर गया।
उसने पूरी तैयारी के साथ 200 जवानों के साथ भाई तारा सिंह के आश्रम पर आक्रमण कर
दिया। आक्रमण के लिए भोर का समय निश्चित किया गया ताकि सिक्खों को सहज में दबोच लिया
जाए किन्तु सिक्ख सतर्क थे। वे सदैव मोर्चे में रहते थे। उस समय सरदार बघेल सिंह
शौच स्नान के बाद जँगल के लिए जा रहे थे कि तभी उन्होंने घोड़ों की टापों की आवाज
सुनी। धुँधले प्रकाश में उन्होंने जाफरबेग के सिपाहियों को ललकारा और ऊँचे स्वर में
जयघोष करते हुए शत्रु पर अपनी तलवार से टूट पड़ा। बस फिर क्या था, शत्रु सेना ने
गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। भाई तारा सिंह के आश्रम में विराजमान सभी सिक्ख योद्धाओं
ने अपने अपने अस्त्र-शस्त्र उठाए और सरदार बघेल सिंह की सहायता को दौड़ पड़े। शत्रुओं
को इतने बड़े मुकाबले की आशा न थी। वे तो अपनी सँख्या के बल पर सहज ही विजय प्राप्ति
की कामना कर रहे थे। यह क्षेत्र सिक्खों का था।