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सिक्ख मिसलें

13 अप्रैल, 1748 ईस्वी को वैशाखी के दिन सिक्खों के 65 दलों को एक करके एक ही नाम में बदल दिया गया और इस दल का नाम रखा गया ‘दल खालसा’। अब नवाब कपूर सिंघ जो उस समय काफी वृद्ध हो चुके थे, भविष्य में सिक्खों के नेतृत्त्व से अलग हो गए और उनके स्थान पर सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया नेता नियुक्त हुए। अगले बीस वर्षों में परिस्थिति के अनुसार दल खालसा को आवश्यकता अनुसार ग्यारह-बारह बड़े दलों में बाँट दिया गया। प्रत्येक दल का अपना अपना सरदार, अपना अपना निशान और अपनी ही उपलब्धियाँ होती थीं किन्तु शक्ति में वे सब एक जैसे न थे। कुछ समय के बाद ये बारह जत्थे ‘मिसले’ कहलाने लगी। उन्होंने स्वाधीनता सँग्राम में वह कौशल दिखाए कि मुगलों और अफगानों को पँजाब से बाहर निकालकर 1767 से 1799 ईस्वी तक समूचे पँजाब में सिक्ख राज्य स्थापित कर लिया। यहाँ यह उल्लेख करना अरोचक न होगा कि ये बारह मिसले किसी खास योजनानुसार जानबूझकर अथवा एक ही समय में नहीं बनाई गई थीं अपितु आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार ये स्वयँमेव बन गईं। आरम्भ में ये ग्यारह जत्थे ही कहलाते रहे परन्तु धीरे धीरे जत्था शब्द के स्थान पर मिसल शब्द का प्रयोग होने लगा। हर जत्थे की एक मिसल अर्थात फाइल, श्री अमृतसर साहिब जी (केन्द्रीय दफ्रतर) में हुआ करती थी। उस मिसल में हर जत्थे के जत्थेदारों और जवानों द्वारा लड़ी गई लड़ाइयाँ, यौद्धिक गतिविधियाँ, प्राप्त यौद्धिक विजय तथा युद्धों में मारे गए सैनिकों का रिकार्ड (हिसाब-किताब) रखा जाता था। सिपाही अथवा जत्थेदार को जो कुछ प्राप्त होता था, वह अपनी मिसल में दर्ज करवाकर खजाने में जमा करवा दिया करता था। हर कोई रकम जमा करवाने वाला यह ही कहता था कि मेरा हिसाब उस विशेष नाम की मिसल में लिख लो। इस प्रकार जत्था शब्द तो हट गया और मिसल शब्द का प्रयोग प्रचलन में आ गया। अब, जब कोई जत्थे का सिपाही दूसरे जत्थे के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता तो वह यही पूछता कि तू किस मिसल से सम्बन्धित है और कौन सी मिसल के सिपाही कहाँ हैं, इत्यादि। "मिसल" एक अरबी शब्द है, जिसके अर्थ हैं बराबर अथवा एक ही जैसा इसी शब्द को फारसी भाषा में एक दस्तावेज अथवा फाईल के अर्थों में प्रयोग करते हैं। इन मिसलों में एक बड़ा गुण यह था कि इन ग्यारह-बारह दलों के सरदार दूसरे जत्थों के सरदारों के समान समझे जाते थे। अभिप्राय यह कि सभी सिक्ख चाहे वे नेता थे अथवा साधरण सदस्य, सब आपस में समान समझे जाते थे। जहाँ तक जाति का सम्बन्ध है, सभी सिक्ख आपस में समान होते थे, इसलिए युद्ध क्षेत्रों, पँचायती सभाओं और सामाजिक जीवन में सभी सिक्ख अपने सरदारों के समान समझे जाते थे परन्तु युद्ध के अवसर पर वे अपने-अपने नेताओं का पूरी तरह से आज्ञा पालन भी करते थे। हाँ, शान्ति के समय उनके लिए अपने सरदारों की आज्ञा को पूरी तरह से पालन करना आवश्यक नहीं होता था। मिसलें देखने को चाहे अलग अलग हो गई थीं, परन्तु वास्तव में एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई थीं। हर मिसल का प्रभाव अथवा अधिकार क्षेत्र निश्चित कर दिया था किन्तु सामूहिक विपत्ति के समय ये मिसलें एक दूसरे के साथ मिलकर, एक समान होकर शत्रु से जूझती थीं। दल खालसा के नेतृत्त्व के नीचे वे एक दूसरे से अलग होने की सोच ही नहीं सकते थे। वह जो धन अथवा माल विभिन्न स्रोतों से लाते थे, एक जगह पर जमा करवाते और मिल बाँटकर खाते। किसी भी मिसल में निजी कब्जे वाले माल पर खुदगर्जी नहीं थी। वैशाखी तथा दीवाली के समय जब वे श्री अमृतसर साहिब जी में एकत्रित होते तो अपनी अलग-अलग मिसलों के झण्डों के नीचे नहीं, बल्कि दल खालसा एक छत्रछाया में एकत्रित होते और अपने आप को सरबत खालसा कहते। वे पाँच प्यारे चुनते और गुरमता करते। 1748 ईस्वी के पश्चात् उन्होंने कई एक आवश्यक गुरमते भी पारित किए। सामूहिक बातें इज़लास दीवान में ही करते। अब्दाली के आक्रमण, मीर मन्नू की मदद पर शाहनवाज खान के संग बर्ताव, उनके लिए यही सामूहिक बातें होती। ऐसा करने से मिसलों के अलग-अलग होने पर भी सामूहिक धड़कन बनी रहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि मिसलों के जत्थेदार की राय अपना अलग प्रभाव रखती थी, परन्तु प्रत्येक सिपाही को अपनी राय देने तथा खुले तौर पर विचार प्रकट करने का अधिकार प्राप्त था। दूसरा मिसल में कोई ऊँच या नीच का भेद नहीं था। मनसबदार की तरह ग्रेड निश्चित नहीं थे और न ही आज की तरह रैंक, रूत्बे ही मिले हुए थे। सारे एक समान थे, जो बराबर के अधिकार रखते थे। एक जत्थेदार सिपाही का रुवबा रखता था और एक सिपाही एक जत्थेदार का। वे एक समान अर्थात पहला स्थान रखते थे। जत्थेदार की मर्जी कोई आखरी मर्जी नहीं होती थी। हर कोई सिपाही अपनी राय जत्थेदार तक पहुँचा सकता था। उस समय के प्रत्यक्षदर्शी मौलवी वली औला सद्दिकी ने लिखा है कि सिक्ख मिसलों का हर सदस्य आजाद था। हर सरदार मालिक भी था और सेवक भी, हाकिम भी और मातहत भी। एकान्त में खुदा का भक्त फकीर तथा पँथ में मिलकर दुश्मन का लहू पीने वाला मौत का फरिशता होता था। तीसरा सिपाही को अधिकार था कि वह एक मिसल में से निकलकर किसी दूसरी मिसल में शामिल हो सकता था। यदि कोई सिपाही एक मिसल को त्यागकर दूसरी मिसल में जाता तो इस बात को बुरा नहीं माना जाता था। इससे यह प्रकट होता है कि सब मिसलों का लक्ष्य एक ही था। यदि कोई सिक्ख किसी दूसरी मिसल में जाने की इच्छा प्रकट करता तो उसका जत्थेदार उसे खुशी से वहाँ भेज देता। इसी प्रकार दूसरा जत्थेदार उसे खुशी से स्वीकार कर लेता। इस छूट का एक लाभ यह भी था कि हर सिपाही का व्यक्तित्त्व कायम था। फिर जत्थेदार इस प्रयास में रहते थे कि हर सिपाही उनसे सन्तुष्ट रहे। सिपाही के खुश रहने की सूरत में उसकी मिसल छोड़कर जाने का कोई कारण ही नहीं रह जाता था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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