2. आहलूवालिया मिसल
फैजलपुरी मिसल के पश्चात् आम सिक्खों में सम्मानित होने वाली यदि कोई मिसल थी तो
आहलूवालिया मिसल थी। इस मिसल का इतिहास में उच्च स्थान रहा है और इसे सम्मान व
श्रद्धा से देखा जाता था। इस मिसल के सँस्थापक तथा नेता जत्थेदार जस्सासिंह
आहलूवालिया ही थे। जैसे नवाब कपूर सिंह ने अति कष्टों के समय, छोटे घल्लुघारे की
विपत्ति के समय पर अगुवाई करके पँथ को चढ़दी कला में रखा और निराशा को समीप नहीं आने
दिया, उसी प्रकार सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया ने अब्दाली के आक्रमणों, मीर मन्नू
की सख्ती, अदीना बेग की चालाकी, मरहट्टों की हठधर्मी और फिर बड़े घल्लुघारे की योग्य
अगुवाई करके, पँथ को पँजाब पर राज करने योग्य बनाया। कौम ने भी अपना सम्मान तथा
श्रद्धा दर्शाने के लिए सरदार जस्सा सिंह जी को ‘सुलमानुकुल कौम’ का खिताब दिया और
लाहौर का पातशाह (बादशाह) बनाया। फिर जब श्री हरिमन्दिर साहब जी की दोबारा आधारशिला
रखने की बात चली तो पँथ ने संयुक्त निर्णय करके नींव पत्थर सरदार जस्सा सिंह
आहलूवालिया जी से रखवाने के लिए उनसे विनती की। ये दो घटनाएँ सिक्खों का उनके प्रति
सम्मान की साक्षी दर्शाने के लिए काफी है। नवाब कपूर सिंह जैसे सुयोग्य नेता ने जब
दल खालसा का नेतृत्त्व इनके हाथों सौंप दिया तो यह निर्णय न केवल उनका
बुद्धिमतापूर्ण था, बल्कि नवाब कपूर सिंह जी की दूरदृष्टि का भी चमत्कार था। 1748
ईस्वी से लेकर 1767 ईस्वी तक पँथ को कई कठिनाइयों, समस्याओं तथा दुश्मनों का सामना
करना पड़ा परन्तु यह सरदार जस्सा सिंह की अगुवाई का ही कमाल था कि उन्होंने पँथ को
अन्त तक विजयी बनाये रखा। सरदार जस्सा सिंह के पिता-पितामाह गाँव आहलू के निवासी
थे। सरदार जस्सा सिंह के ननिहाल भी आहलू गाँव में ही थे। आपके मामा श्री भाग मल जी
सिक्खों की चढ़दी कला देखकर सिंह सज गए। उन्होंने अपना सारा घर बाहर व सामान बेचकर
घोड़ा खरीदा और सरदार नवाब कपूर सिंह जी के जत्थे (मिसल) में सम्मिलित हो गए।
अमृतपान करने पर उनका नाम भाग सिंह रख दिया गया। वह उन्नति करते करते एक दिन
स्वतन्त्र रूप में अपना जत्था बनाने में सफल हो गये परन्तु भाग सिंह जी स्वयँ को
सरदार कपूर सिंह जी के उप-जत्थे के रूप में ही मान्यता दिलवाते थे। एक दिन सरदार
कपूर सिंह जी सरदार भाग सिंह के घर गए। वहाँ पर कपूर सिंह जी को भाग सिंह की विधवा
बहन मिली, जिसने अमृतपान किया हुआ था। वह गुरूबाणी बहुत सुरीले स्वर में रवाब की
संगत में गायन करती थी। नवाब कपूर सिंह जी ने जब उनका कीर्तन सुना तो बहुत प्रशँसा
प्रकट की, तभी आप जी ने पूछा कि बहन जी की कोई सन्तान भी है तो उत्तर में सरदारी
भाग सिंह जी ने बताया कि एक पुत्र है जो माता सुन्दर कौर जी के पास दिल्ली में रह
रहा था, अभी कुछ दिन हुए वापिस आया है। यह सुपुत्र सरदार जस्सा सिंह जी ही थे। नवाब
कपूर सिंह ने बालक जस्सा सिंह के प्रतिभाशाली व्यक्तित्त्व को देखकर उसी समय
भविष्यवाणी कर दी कि यह बालक, समय आएगा, जब बहुत बड़ा शूरवीर योद्धा बनकर कौम का
मार्गदर्शन करेगा। यह बात सुनकर बुद्धिमती माँ ने जस्सा सिंह की बाँह नवाब कपूर
सिंह को पकड़ा दी। थोड़े से समय पश्चात् सरदार जस्सासिंह का नाम अपने मामा भाग सिंह
से भी आगे बढ़ गया। जब सरदार भाग सिंह का निधन हो गया तो उनके जत्थे मिसल की
जिम्मेवारी जस्सा सिंह पर आ पड़ी, क्योंकि सरदार भाग सिंह निःसंतान थे, इसलिए इनकी
मिसल का नाम भी आहलूवालिया प्रसिद्ध हो गया। इस मिसल का प्रभाव तथा रणक्षेत्र भी
निश्चित था। मिसल का मुख्यालय जालँधर दुआबा में था और प्रभाव क्षेत्र भी वहीं आसपास
का क्षेत्र ही था। इस मिसल के अधिकार क्षेत्र में व्यास नदी की इस ओर आहलू सरिअला,
सिलंवर, भूपल, गगरवाल और उस पार तलवँडी तथा सुलतानपुर इत्यादि क्षेत्र थे। इसके
अतिरिक्त राय इब्राहिम कपूरथला वाले से खिराज भी लेते थे। सतलुज पार भी ईसा खान तथा
जगरांव पर इस मिसल का प्रभाव था। सरदार जस्सा सिंह स्वयँ चाहे मिसल के अग्रणी थे,
परन्तु उनका दृष्टिकोण कभी भी सीमित तथा निजी मिसल वाला नहीं रहा। वह अन्तिम समय तक
समूचे पँथक हित के लिए सोचते रहे। इस मिसल का भी सिक्ख इतिहास में उच्च स्थान रहा
है। यदि फैजलपुरिया मिसल, दुखड़े दूर करने में आगे थी तो यह मिसल भी मुकाबले में
संघर्ष करने में किसी से कम नहीं थी। अदीना बेग अपने समय का एक शातिर नवाब था, उसने
मरते दम तक जालँधर की अजारदारी न छोड़ी। इस मिसल ने अदीना बेग के इरादों पर रोक लगाए
रखी, बिल्कुल अदीना बेग की नाक के नीचे प्रभाव क्षेत्र रखना तथा अधीनता को स्वीकार
न करना, इस मिसल के हिस्से ही आया। अदीना बेग ने कई बार कोशिश भी की पर सरदार जस्सा
सिंह का करारा उत्तर सुनकर वह चुप हो गया। इस मिसल की शक्ति काफी समय तक जोरों पर
रही। अदीना बेग ने सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया को इस मिसल से टकराना चाहा परन्तु
सरदार रामगढ़िया ऐसा करने के लिए तैयार न हुए। सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया के होते
हुए कोई मिसल या उनके जत्थेदार आज्ञा का उल्लँघन नहीं करना चाहते थे। लाहौर के कब्जे
के समय भी पातशाह (बादशाह) इनको ही बनाया गया। सन् 1767 ईस्वी के उपरान्त इस मिसल
ने कपूरथला तथा जालँधर दुआबा के कई क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण कर लिया था। सरदार
जस्सासिंह जी एक युद्ध में एक गम्भीर घाव के कारण स्वस्थ होने पर भी बड़े युद्धों
में भाग लेने के लिए अपने को अयोग्य अनुभव कर रहे थे, इसके साथ ही उनकी आयु भी इसके
लिए उन्हें आज्ञा नहीं दे रही थी। वह अपने ऊँचे रूतबे के कारण भी मिसलों की आपसी
लड़ाइयों में भाग लेना उचित नहीं समझते थे। अतः अधिकाँश समय वह तटस्थ बने रहे। सन्
1783 ईस्वी में आपका निधन हो गया। सरदार जस्सा सिंह के देहान्त के पश्चात् इस मिल
की जत्थेदारी सरदार भाग सिंह, जो आपके भतीजे थे, के हाथ आई। वह कमजोर अधिकारी थे।
वह अपना प्रभाव तथा अधिकार क्षेत्र बढ़ाने में सफल न हुए बल्कि रामगढ़िया मिसल से हार
गए। भाग सिंह के पश्चात् फतेह सिंह के संग सरदार रणजीत सिंह ने पगड़ी बदल ली और इस
मिसल को अपनी ओर कर लिया। यह कहा जाता है कि यदि सरदार फतेह सिंह स्वयँ हिम्मत से
काम लेते तो वे स्वयं पँजाब के महाराजा बन सकते थे परन्तु उनके अन्दर आगे बढ़कर
जोखिम लेने की शक्ति नहीं थी। बुद्धिमता में इनके मुकाबले का कोई मिसलदार नहीं था।
सरदार रणजीत सिंह ने उनकी अक्लमँदी का बहुत लाभ उठाया। सन् 1806 ईस्वी में फतेह
सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह की तरफ से लार्ड लेक के साथ मैत्री संधि की। आप महाराजा
रणजीत सिंह की भान्ति हर मुहिम पर स्वयँ आगे बढ़कर हिस्सा लेते रहे। सन् 1831 ईस्वी
में आपका देहावसान हो गया।