11. निशानवालिया मिसल
प्रत्येक सेना में निशान (पताका) का महत्त्व माना जाता है। निशान के गिरने से सेना
का मनोबल ही नहीं टूट जाता है बल्कि पराजय भी हो जाती है। निशान (झण्डा) न गिरने
देना ही युद्ध भूमि में विजयघोष करवाता है। अतः समस्त सिक्ख मिसलों में से चुने हुए
सिक्ख छाँटकर इस जत्थे में सम्मिलित किये गए थे। जब निशान ध्वज उठाने वाला युद्ध
में शहीद हो जाता था तो निशान गिरने से पूर्व ही दूसरा निशान को उठा लेता था। इस
जत्थे की शूरवीरता की कई गाथाएँ प्रचलित हैं। इनका एक उदाहरण इस प्रकार है– भाई आलम
सिंह को घायल अवस्था में अब्दाली के सैनिकों ने पकड़ लिया। उन्होंने भाई आलम सिंह जी
को झण्डा फैंकने के लिए कहा परन्तु वह टस से मस न हुए। इस पर फौजदार ने गर्ज कर कहा
कि झण्डा फैंक दें, अन्यथा तेरे हाथ काट दिए जाएँगे। उत्तर में आलम सिंह ने जोश में
कहा कि मैं झण्डे को पैरों से पकड़ लूँगा। यदि पैर भी काट दिये जाएँ तो ? तब आलम
सिंह ने कहा कि मैं झण्डे को दाँतों से पकड़ लूँगा। सिर भी काट दिया जाये तो ? इस पर
फिर से ऊँचा जयकारा लगाते हुए भाई जी ने कहा कि फिर वही रक्षा करेगा जिसका यह झण्डा
है। काज़ी नूरमुहम्मद ने इस घटना का वर्णन किया है। पहले पहले निशान वाली मिसल का
कोई अलग से अस्तित्त्व न था। प्रत्येक मिसल में से इस मिसल में सिपाही लिए जाते थे,
वह अपना खर्च लेते थे। उन दिनों संगत सिंह जी इस मिसल के जत्थेदार थे। यह कोई
प्रसिद्ध मिसल न थी। अब्दाली को पँजाब से भगाने के बाद जत्थेदार संगल सिंधू ने
अम्बाला क्षेत्र को अपना केन्द्र बनाकर करनाल तक के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
आपके पश्चात् जत्थेदार मुहर (मोहन) सिंह ने नेतृत्त्व सम्भाला। जत्थेदार मुहर सिंह
ने कोई नया क्षेत्र अपनी मिसल में नहीं मिलाया। वह उसी में ही सन्तुष्ट रहे। आप जी
की कोई सन्तान न थी। अतः महाराजा रणजीत सिंह ने इस पर अधिकार कर लिया परन्तु 1809
ईस्वी में अँग्रेजों के साथ हुई संधि के अनुसार यह क्षेत्र अँग्रेजों के नियँत्रण
में चला गया। उन दिनों लगभग दो हजार सैनिक इस मिसल में हुआ करते थे।