10. शहीद सिंघ अथवा निहंग मिसल
शहीद सिंघ अथवा निहंग मिसल की नींव रखनेवाले वे सिक्ख थे, जो मुसलमान शासकों के
अत्याचारों से तँग आकर धर्म के नाम पर मन मिटने के लिए एक सँगठन बनाकर उनका विरोध्
किया करते थे। बाबा विनोद सिंह जी के समय इस जत्थे का गठन हो गया था। उनके बाद बाबा
दीप सिंह जी ने इस जत्थे का नेतृत्त्व सम्भाल लिया। इस जत्थे के समस्त जवान नीले
वस्त्र धरण करते थे। जनसाधारण इन लोगों को निहंग कहकर पुकारते थे। निहंग लोग
निष्काम जनसाधारण की सेवा में व्यस्त रहते थे। उन्हें अपनी सुख की चिन्ता नहीं होती
थी और दूसरों के हितों की अधिक चिन्ता सताती थी। सिक्खों की परम्पराएँ निर्माण करने
में सिक्ख सेना की नियमावली जीवन पद्धित अनुशासन व मर्यादाएँ इन्हीं की देन हैं।
युद्ध समय के नारे और चड़ढीकला साहस के प्रदर्शन के बोल जो इन लोगों ने प्रचलित किए,
वह आविष्कार आज भी भारतीय सिक्ख सेना में प्रयोग में लाए जाते हैं। इस मिसल के
जत्थेदार बाबा दीप सिंघ जी जहाँ शूरवीर व अग्रणी जरनैल सेनानायक थे वहीं आप जी
विद्वान भी थे। आप जी ने श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी की कई प्रतियाँ दमदमा साहिब
बठिण्डा में बैठकर तैयार की थी। दमदमा (साबों की तलवँडी) सँघर्ष के केन्द्र से दूर
होने के कारण विपदाओं व कष्टों से सुरक्षित था। तब भी आप समय-समय पर अपने जत्थे के
जवानों को लेकर अपने पीड़ित भाइयों की सहायता के लिए पहुँच जाते थे। सन् 1748 ईस्वी
में जब सरबत खालसा सम्मेलन में 75 सिक्ख जत्थों को ग्यारह अथवा बारह जत्थों में
विभाजित किया गया तो आप जी ने निहंग सिंहों का अलग से जत्था तैयार कर लिया जिनका
कार्यक्षेत्र रणक्षेत्र में सर्वप्रथम शत्रु पर धावा बोलना होता था अर्थात वे अपने
प्राणों की बलि देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे, इसलिए आपके जत्थे का नाम शहीद मिसल
निहंग पड़ गया। सन् 1757 ईस्वी के नवम्बर मास में अहमदशाह अब्दाली का सेनानायक जहान
खान श्री हरिमन्दिर साहिब जी (दरबार साहिब जी) पर कब्जा करके वहाँ पर पवित्र सरोवर
तथा भवनों का अपमान कर रहा था, तब आपने समस्त सिक्ख जगत को जागृत करके मर मिटने के
लिए ललकारा और अपना बलिदान देकर अपने तीर्थ स्थलों को स्वतन्त्र करवा लिया। आपकी
शहीदी के उपरान्त सरदार कर्म सिंह जी इस मिसल के सँचालक नियुक्त हुए। इस जत्थे के
सरदार गुरबख्श सिंह जी ने सन् 1764 ईस्वी में अपने तीस साथियों के साथ श्री दरबार
साहिब जी की सुरक्षा हेतु अब्दाली के तीस हजार सैनिकों के साथ जूझते हुए प्राणों का
बलिदान दे दिया। इस मिसल में अधिकतर अकाली थे, जिनकी वेशभूषा नीले वस्त्र ही होते
थे और जो अपने गले व सिर में गोल तेज चक्र धारण किये रहते थे। इस मिसल का प्रदेश
सतलुज नदी के पूर्व में था। इस मिसल के पास हर समय दो हजार जवानों की सेना तैयार
रहती थी। जत्थेदार कर्म सिंह जी के उपरान्त अकाली फूला सिंह जी और सरदार साधू सिंह
ने इस मिसल की आनबान को बनाये रखा। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस मिसल ने अपना
केन्द्र अकालतख्त साहिब को बना लिया। महाराजा रणजीत सिंह ने इस मिसल को छेड़ना उचित
न समझा। वह अन्त तक इस मिसल का आदर करते रहे।