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7. पृथीचँद द्वारा गुरूघर की नाकाबंदी

श्री गुरू रामदास साहिब जी के परम ज्योति में विलीन हो जाने के पश्चात दस्तार बंदी की रस्म पूरी करके श्री गुरू अरजन देव जी वापिस श्री अमृतसर साहिब जी आ गए। उन दिनों श्री अमृतसर साहिब जी नगर का निर्माण कार्य चल रहा था। यह निमार्ण कार्य पृथीचँद की देखरेख में हो रहा था। किन्तु दस्तारबंदी के समय पृथीचँद के व्यवहार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अपना सहयोग गुरू-दरबार के कार्यों में नहीं देंगे। अतः नगर निमार्ण के कार्यों में बाधा उत्पन्न होने की सम्भावना थी। जबकि श्री गुरू अरजन देव जी चाहते थे कि निमार्ण कार्यों में तीव्र गति लाई जाए। किन्तु अभी उनके पास इस कार्य को उसी गति से करवाने का विकल्प नहीं था क्योंकि पृथीचँद ने समस्त आय के साधनों पर पूर्ण नियँत्रण कर रखा था। पृथीचँद श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के बढ़ते प्रताप को देखकर बहुत परेशान था क्योंकि वह स्वयँ गुरू बनना चाहता था। अतः वह गुरू बनने की युक्तियों पर विचार करने लगा। उसने सोचा कि यदि वह गुरू-दरबार को आर्थिक क्षति पहुँचाए तो श्री गुरू अरजन देव साहिब जी विचलित हो जाएँगे और वह अपने पक्ष के मसँदों (मिशनरियों) की सहायता से गुरूगद्दी पर कब्जा करने में सफल हो जायेगा। उसने इसी आशय से नगर की चुँगी इत्यादि की आमदनी अपने कब्जे में करनी प्रारम्भ कर दी और इसके अतिरिक्त अपने विशेष व्यक्तियों को नगर के बाहर प्रमुख रास्तों पर तैनात कर दिया।

वे लोग दूर-दराज से आने वाली संगत से कार भेंट (दसवंत, दशमाँश यानि की आय का दसवां हिस्सा) की राशि लेकर पृथीचँद के कोष में डाल देते और संगत को श्री गुरू अरजन देव साहिब जी द्वारा चलाये गए लंगर में भेज देते। इस प्रकार गुरूघर की आय घटते-घटते लगभग समाप्त होने लगी परन्तु खर्च ज्यों का त्यों ही था। आर्थिक दशा के बिगड़ने के कारण धीरे-धीरे लँगर की व्यवस्था ठप्प होने लगी यानि कि कभी-कभी लँगर में भोजन की भारी कमी देखने को मिलती। जहाँ कभी उत्तम पदार्थ परोसे जाते थे अब उसमें केवल चने की रोटी ही मिलती। किन्तु लँगर प्रथा जारी रखने के लिए श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने पहले अपनी पत्नी गँगा देवी जी ने गहने दिए और फिर घर का सामान इत्यादि बेच दिया और इसके अतिरिक्त आपने अपने मामा मोहन और मोहरी से कुछ धन कर्ज भी मँगवाया। अपार जनसमूह के समक्ष भला इस धन से दैनिक व्यय कहाँ पूरे होने वाले थे। प्रतिदिन लँगर का स्तर निम्न होता गया और संगत में निराशा फैलने लगी। उन्हीं दिनों गुरूदेव जी के मामा जी जिन्हें संगत प्यार से भाई गुरदास जी के नाम से सम्बोधन करती थी अपने घर श्री गोइँदवाल साहिब जी से गुरू दरबार में हाजरी भरने आए। जब उन्होंने लँगर में प्रसाद ग्रहण किया तो लँगर का निम्न श्रेणी का स्तर देखकर स्तबध रह गये। उत्तर में माता भानी जी ने अपने बड़े लड़के पृथीचँद की करतूतों के विषय में विशेष जानकारी दी और कहा कि वह बहुत कपटी मनुष्य है और मेरे बार-बार समझाने पर भी नहीं मानता। इस पर भाई गुरदास जी ने प्रमुख सिक्खों के साथ इस गम्भीर समस्या पर विचारविर्मश किया और संगत को जागरूक करने के लिए एक विस्तृत योजना बनाई जिसके अर्न्तगत उन्होंने दूरदराज से आने वाली संगत को पृथीचँद के छलकपट से अवगत करवाया। इस प्रकार कुछ दिन यह अभियान तीव्र गति से चलाया गया। जैसे ही संगत जागरूक हुई वैसे-वैसे लँगर का कायाकल्प हो गया। फिर से गुरूघर के लँगर का स्तर बहुत ऊँचा हो गया। किन्तु पृथीचँद समय-समय पर नये-नये बखेड़े करने लगा। उसने एक नया उपद्रव किया कि स्वयँ गुरूगद्दी पर बैठने लग गया। कुछ नये दर्शनार्थी भूल में पड़ जाते थे इस प्रकार वहाँ पृथीचँद बहुत भारी अभियान करता हुआ नई आई संगत को गुमराह करता हुआ भाँति-भाँति के आर्शीवाद देता। किन्तु उसके पास आध्यात्मिक ज्ञान तो था नहीं जिस कारण उसकी जल्दी ही कलही खुल जाती। संगत को जब सत्य का ज्ञान होता तो वह पश्चाताप करने के लिए पुनः श्री गुरू अरजन देव साहिब जी के दरबार में उपस्थित होकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करके सन्तुष्ट होकर लौट जाते इस प्रकार घीरे-धीरे पृथीचँद की यह नीति भी बूरी तरह असफल सिद्ध हुई। संगत के जागरूक होने पर पृथीचँद जनसाधारण की दृष्टि में हीनभावना से देखा जाने लगा। इस प्रकार अपने को असफल पाकर उसके मन में भारी कुण्ठा उत्पन्न हो गई वह श्री गुरू अरजन देव साहिब जी को अपने शत्रु की दृष्टि से देखने लगा। इसके विपरीत श्री गुरू अरजन देव साहिब जी सदैव धैर्य की साक्षात मूर्ति, शाँत व गम्भीर बनकर अढोल रहते जैसे कुछ हुआ ही नहीं, वह कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं करते प्रत्येक क्षण मधुर मुस्कान से सभी का स्वागत करते। उनके स्वभाव से कभी उतार व चढ़ाव नहीं दिखाई देता। आपका विश्वास रहता कि सभी कुछ हरि इच्छा से हो रहा है, जो कि सभी के हित में है। इसलिए आप कठिन परिस्थितियों में भी कभी विचलित दिखाई नहीं देते।

पृथीचँद चारों तरफ से निराश हो गया। उसके मसँद भी उसका साथ छोड़कर चले गए। बोखलाहट में पृथीचँद ने पँचायत बुला ली और पँचायत के समक्ष समस्त पैतृक सम्पति के बँटवारे की बात कह दी, उसका मानना था कि मेरी आय लगभग समाप्त हो गई है मुझे मेरा अधिकार मिलना चाहिए। पँचायत ने उसके सभी दावे घ्यान से सुने जो कि किसी प्रकार भी उचित नहीं थे किन्तु उदारवादी श्री गुरू अरजन देव साहिब जी ने अपने बड़े भाई को सन्तुष्ट करने के लिए वह सभी कुछ जो वह चाहते थे देना स्वीकार कर लिया उन दावों में पृथीचँद को श्री अमृतसर नगर के बाजारों के किरायों की आमदनी भी थी। समस्त संगत गुरू जी की विशालता से आश्चर्यचकित थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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