39. कुछ भक्तजनों की बाणी अस्वीकार
श्री गुरू अरजन देव साहिब जी रामसर नामक स्थान पर जब एकान्तवास में श्री आदि ग्रन्थ
साहिब जी की बाणी का सम्पादन कर रहे थे तो उन दिनों आपसे मिलने के लिए लाहौर नगर से
कुछ भक्तजन विशेष रूप से मिलने आये। इनका मुख्य आश्य था कि वे भी अपनी रचनाएँ उस नये
ग्रन्थ में लिखवा लें, जिसका सम्पादन गुरू जी कर रहे थे। भक्तजनों के आगमन पर गुरू
जी ने उन सबका हार्दिक स्वागत किया और कहा कि यदि आपकी बाणी हमारे प्रथम गुरू, श्री
गुरू नानक देव साहिब जी की विचारधारा के अनुकूल होगी तो हम उसे अवश्य ही स्वीकार कर
लेंगे अन्यथा ऐसा करना सम्भव न होगा। इस पर भक्तजनों में सेः
1. श्री कान्हा जी गुरूदेव को अपनी रचनाएँ सुनाने लगे उन्होंने उच्चारण कियाः
मैं ओही रे, मैं ओही रे,
जाको नारद सारद सेवे, सेवे देवी देवा रे ।।
ब्रहमा बिशन महेश अराधहि, सभ करदे जां की सेवा रे ।।
यह पद सुनते ही गुरू जी ने भक्त कान्हा जी से कहा कि मुझे क्षमा
करें। आपकी यह बाणी स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि इस रचना में अभिमान का बौध होता
है, जबकि श्री गुरू नानक देव जी का दरबार विनम्रता का पुँज है। अतः इस ग्रन्थ में
विपरीत विचारधारा को शामिल नहीं किया जा सकता।
2. तदपश्चात भक्त छज्जू जी ने अपनी बाणी गुरू जी को सुनानी
प्रारम्भ कीः
कागद संदी पूतली तउ न त्रिया निहार ।।
इउ ही मार लै जाएगी, जिउं बलोचा की धाड़ ।।
नारी की निन्दा सुनते ही गुरू जी ने कहा कि कृपा अपनी यह रचना
रहने दें क्योंकि श्री गुरू नानक देव साहिब जी के घर में गृहस्थ आश्रम को प्रधानता
प्राप्त है। यहाँ पर सँयम में रहना सिखाया जाता है।
3. अब भक्त पीलो जी ने अपनी रचना का इस प्रकार चित्रण कियाः
पीलो असां नालो से भले जंभदियां जो मुए ।।
ओना चिकड़ पाव न डोबियां न आलूद भए ।।
गुरू जी ने स्पष्ट किया कि जन्म-मरण तो प्रकृति का खेल है। हमें
नियमों से सन्तुष्ट होना चाहिए। यदि हमारी भावनाएँ उन नियमों के विरूद्ध होगी तो हम
भक्त कदाचित नहीं हो सकते। अतः यह रचना भी श्री गुरू नानक देव साहिब जी के
सिद्धान्त के समान नहीं है, अतः यह अस्वीकार्य है। उन्हें गुरूमत सिद्धान्तों से
अवगत कराते हुए आपने यह रचना सुनाईः
दुखु नाही सभु सुखु ही है रे, ऐके एकी नेतै ।।
बुरा नहीं संभु भला ही है रे, हार नही सभ जेतै ।।
4. अन्त में भक्त शाह हुसैन जी ने अपनी बाणी उच्चारण कीः
चुप वे अड़िया, चुप वे अड़िया ।।
बोलण दी नही जाय वे अड़िया ।।
सजणा बोलण दी जाय नाही ।।
अंदर बाहर हिका साई ।।
किस नूं आख सुणाई ।।
इको दिलबर सभि घट रविआ दूजी नहीं कढ़ाई ।।
कहै हुसैन फकीर निमाणा, सतिगुर तो बलि बलि जाई ।।
गुरू जी ने श्री गुरू नानक देव जी के सिद्धान्त को इस प्रकार
सुनाकर बतायाः
जब लग दुनीआ रहीऐ, किछु सुणीऐ, किछु कहीऐ ।।
अतः यह रचना भी स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि सैद्धान्तिक
मतभेद विद्यमान है। इस पर भक्त कान्हा जी गुरू जी से असहमत हो गए और अपने पक्ष में
बहुत सी बातें बताने लगे कि वह पूर्ण पुरूष हैं, किन्तु गुरू जी ने उन्हें अपना दृढ़
निश्चय बता दिया कि वह विरोधी विचारधारा को कभी भी अपने ग्रन्थ साहिब जी में कोई
स्थान नहीं देंगे। शेष तीनों भक्तजन शान्त बने रहे और गुरू जी के निर्णय पर कोई
प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और लौट गए। मार्ग में एक दुर्घटना में भक्त कान्हा जी
की मृत्यु हो गई।