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5. ‘घल्लूघारा’ (घोर तबाही)

लखपत राय की सेना को खदेड़ते हुए सिक्ख सैनिक वापस रावी नदी पार करने के लिए तट पर पहुँचने में सफल हो गए किन्तु नदी का जल इस स्थान पर इतना तीव्र गति से बह रहा था कि कोई भी उसमें घुसने का साहस न कर पाता था। डल्लेवालिया सरदार गुरदयाल सिंघ के दो भाइयों ने साहस बटोरकर अपने घोड़े नदी में छोड़ दिए, किन्तु ठाठें मारती नदी के सामने किसी की पेश न चली, घुड़सवार और घोड़े देखते ही देखते जल-समाधि ले गए। इस करूणामय दृश्य से सिक्ख नेता कदाचित भी विचलित नहीं हुई। ऐसे में जस्सा सिंघ आहलूवालिया और अन्य कुछ सरदारों ने कहा कि डूबकर मरने की बजाय शत्रु से जूझकर मरना कहीं अच्छा है, इसलिए सरदार सुक्खा सिंघ के नेतृत्त्व में ‘सत श्री अकाल’ का जैकारा बोलकर और आखरी दाँव मानकर सिक्खों ने शत्रु सेना पर धावा बोल दिया। भीषण युद्ध हुआ। जिसमें जयपत का पुत्र हरिभजन राय, यहिया खाँ का बेटा नाहर खान, फौजदार सैफ अली, करमबख्श, रसूलन सहसिया तथा अगर खान आदि बहुत से प्रमुख लोग सदा की नींद सो गए। इस आक्रमण में सिक्खों को भी जानमाल की भारी क्षति सहन करनी पड़ी। सुक्खा सिंघ की टाँग पर ज़बूटक (देशी छोटी तोप) का एक गोला लगा, जिसके कारण उसकी जाँघ की हड्डी टूट गई। परन्तु वह उसे बाँधकर वापस दल में आ मिले। इस नाजुक समय में जस्सा सिंघ आहलूवालिया ने अन्य सरदारों की सहायता से एक भारी आक्रमण कर दिया। इसके फलस्वरूप वैरियों की नाकाबंदी अस्त-व्यस्त हो गई। इस स्थिति से लाभ उठाकर सिक्ख योद्धा घनी झाड़ियों में जा घुसे। इसी बीच रात हो गई। सिक्ख इतिहास में यह पहला अवसर था कि जब एक ही दिन में सिक्खों को इतनी भारी क्षति सहनी पड़ी। फलस्वरूप इस दिन को ‘घल्लूघारे’ (घोर तबाही) का दिन पुकारा जाता है। यह पहला और छोटा ‘घल्लूघारा’ था। दूसरा और बड़ा ‘घल्लूघारा’ 5 फरवरी, 1762 ईस्वी को अहमदशाह अब्दाली (दुर्रानी) के साथ रणक्षेत्र में हुआ।

अँधकार होने के कारण युद्ध समाप्त हो गया। लखपत की सेना ने समझ लिया कि सिक्ख बुरी तरह पराजित होकर भाग गए हैं। अतः वह बेखौफ होकर अपने शिविरों में आराम करने लगे। उधर झाड़ियों में से निकलकर खालसा दल पुनः एकत्रित हो गया, वे सभी बेहाल थे, परन्तु उनके सरदार जस्सा सिंह ने कहा कि खालसा जी ! वैरियों को आघात पहुँचाने का यही उपयुक्त अवसर है, हमें भागते हुए देखकर वैरी निडर होकर सो गए हैं। इस समय उन्हें नींद ने दबाया हुआ है, इसलिए धावा बोलकर उनसे कुछ घोड़े और अस्त्र-शस्त्र आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। सभी सिक्ख जवानों ने इस सुझाव पर पूरी तरह अमल करने का मन बना लिया और आक्रमण कर दिया। उन्होंने देखते ही देखते सोये हुए अनगिनत शत्रुओं को सदा की नींद सुला दिया और वैरियों द्वारा मशालें जलाने और सतर्क होने से पूर्व ही बहुत से बढ़िया घोड़े तथा हथियार छीनकर काँटेदार झाड़ियों में जा घुसे। प्रातःकाल लखपत राय अपनी विशेष कुमक लेकर उनकी सहायता के लिए आ पहुँचा। अनगिनत मुनसिफ (अवैतनिक स्थानीय लोग) भी उसके साथ थे। लखपत राय की सेना के आगे ढोलवँदन कर रहे थे। ढोल बजाने वालों के पीछे थे ग्रामों में बने तोड़े पलीता, बेल, नेजे, कुल्हाड़िया और गँडासाधारी सैनिक। वे लोग झाड़ियों में इस प्रकार झड़ रहे थे मानों शिकारी कुत्ते झाड़ियों में छिपे हुए हिरनों को ढूँढ रहे हों। यह समय जँगल में से बाहर आने के लिए बड़ा विकट समय था किन्तु सिक्ख सूरमाओं ने वाहिगुरू (परमात्मा) पर भरोसा रखकर एक बार फिर जोरदार आक्रमण किया, जिससे मुलखिया (अवैतनिक लोग) भाग निकले। सिर धड़ की बाज़ी लगाकर लड़ने वाले सिक्ख शूरवीरों के सामने मेला देखने के लिए आए दर्शकों की भीड़ भला कहाँ टिक पाती, वैरी पक्ष के तमाशबीन सैनिकों की दाल नहीं गल पाई। सिक्खों ने ‘सत श्री अकाल’ का जयघोष करते हुए तलवारें खींची ही थी कि लखपत राय की सेना में भगदड़ मच गई और उसके सैनिक जान बचाने के लिए झाड़ियों की ओट ढूँढने लगे। पीछे बचे हुए सिक्ख जवानों ने कुशा घासव वृक्षों के तनों को बाँधकर नाव बना ली, जिसके सहारे धीरे धीरे वे रावी नदी को पार करते गए और रिआड़बी क्षेत्र में पहुँच गए। यह क्षेत्र रामा रंधवा का था। उसका व्यवहार तो सिक्खों के प्रति बहुत ही बुरा था। उसके बारे में यह लोक कहावत किंवदन्ती प्रसिद्ध थी–

देश न रामे के तुम जाईओ, भले ही तुम कन्दमूल माझे क्षेत्र में खाइओ

सिक्खों ने एकाध दिन वहाँ कड़ी धूप में व्यतीत किया। वे फिर श्री हरिगोबिन्द के पावन नौका स्थल से व्यास नदी को लाँघकर दुआबा क्षेत्र में प्रवेश कर गए और मीरकोट के काँटेदार वृक्षों के झुरमुट में शिविर लगा लिया। सिक्ख कई दिन से भूखे थे। इस समय इनके पास न रसद थी और न भोजन तैयार करने के लिए उपयोगी बर्तन इत्यादि। उन्होंने निकट के देहातों से आटा दाना खरीदा और घोड़ों को घास चरने के लिए खुला छोड़ दिया। जब वे ढ़ालों को तवे के रूप में प्रयोग करके रोटियाँ सेंकने में व्यस्त थे, तभी दुआबा क्षेत्र का फौजदार अदीना बेग अलावलपुर आदि पठानों सहित वहाँ आ धमका। सिक्ख इनसे डटकर लोहा लेने के लिए मन बनाने लगे कि तभी गुप्तचर ने सूचना दी कि जसपत राय भी तोपें लेकर व्यास नदी पार कर चुका है। इस प्रकार सिक्ख असमँजस में पड़ गए, क्या करें और क्या न करें। ऐसे में उन्होंने भोजन बीच में ही छोड़कर घोड़ों की बाँगे पकड़ ली और क्रोध का कड़वा घूँट पीकर प्रभु आश्रय लेकर वहाँ से प्रस्थान कर गए। वे चलते-चलते आलीवाल के पतन के रास्ते सतलुज नदी पार करके मालवा क्षेत्र में पहुँच गए। मालवा क्षेत्र सरदार आला सिंघ का था। अतः सिक्खों को यहाँ राहत मिली और वे अपने निकटवर्ती के यहाँ चले गये। मालवा क्षेत्र के सिक्खों ने अपने पीड़ित भाइयों की यथायोग्य सहायता की और मरहम-पट्टी इत्यादि करके उनकी खूब सेवा की। इस अभियान में लगभग सात हजार (7000) सिक्खों का बलिदान हुआ और लगभग तीन हजार कैद कर लिए गए। यह अधिकाँश घायल अवस्था में थे। इनमें वे सिक्ख भी शामिल थे जिन्हें बसोहली के पहाड़ी लोगों ने तथा अन्य शत्रुओं ने पकड़कर लाहौर भेज दिया था। ये सभी तीन हजार सिक्ख लाहौर नगर के दिल्ली दरवाजे के बाहर बड़ी निर्दयतापूर्वक कत्ल कर दिए गए। यह सिक्खों के नरसँहार का भयानक स्थल रहा है। सिक्खों के विरूद्ध लखपत राय के अभियान में इतनी अधिक हानि के कारण सिक्ख इतिहास में यह घटना छोटे ‘घल्लूघारे’ (भयानक विनाश) के नाम से विख्यात है। उधर घल्लूघारे के अभियान से वापस आते ही लखपत राय ने लाहौर पहुँचकर और अधिक अत्याचार आरम्भ कर दिए। उसने सिक्खों के गुरूद्वारों पर ताले डलवा दिए और कई एक तो गिरा भी दिए। कई पवित्र स्थानों पर उसने ‘श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी’ तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों को अग्नि भेंट कर दिया अथवा कुँओं में फिँकवा दी। इतना ही नहीं, उसने यह घोषणा भी करवा दी कि एक खत्री ने सिक्ख पँथ की सृजना की थी और अब मुझ एक अन्य खत्री ने इसका सर्वनाश कर डाला है। भविष्य में कोई भी व्यक्ति गुरबाणी का पाठ न करे, न ही कोई श्री गुरू नानक देव जी और श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी का नाम ले, ऐसा करने वालों का पेट फाड़ दिया जाएगा। अहँकारी लखपत राय ने यह आदेश भी दिया कि कोई भी व्यक्ति ‘गुड़’ शब्द का प्रोग न करें, क्योंकि ध्वनि की समानता के कारण ‘गुरू’ का स्मरण होने लग जाता है। अतः लोगों को गुड़ के स्थान परभेली शब्द का प्रयोग करना चाहिए। वह समझता था कि शायद सिक्खों को इस ढँग से मूलतः समाप्त किया जा सकता है। किन्तुः
जा कउ राखै हरि राखणहार ।। ता कउ कोइ न साकै मार ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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