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4. सिक्खों की रणनीति

सिक्खों के साथ ‘आसमान से गिरे और खजूर में अटके’ वाली कहावत हुई। वे जिधर भी जाते उधर शत्रु युद्ध के लिए तैयार दिखाई देते। वे बुरी तरह फँस गए थे, न आगे बढ़ सकते थे और न पीछे मुड़ सकते थे। खैर, ऐसे में खालसे ने बहुत गम्भीरता से विचारविनिमय के उपरान्त यह निश्चय किया कि जैसे तैसे दो-दो, चार-चार की गिनती में गिआड़सी और दूसरे क्षेत्रों में बिखर जाओ। फिर कभी एकत्रित होकर लखपतराय से दो-दो हाथ कर लेंगे। तत्कालीन सिक्ख जत्थेदारों का कथन था कि युद्ध कला के दो रूप होते हैं। एक तो अपनी पराजय स्वीकार करके घुटने टेक देना, दूसरा दोबारा आक्रमण करने की आशा लेकर पहले तो शत्रु की आँखों से ओझल हो जाना और उपयुक्त समय पाते ही लौट कर वैरी के सामने छाती ठोककर जूझ मरना। अब पराजय स्वीकृति और समर्पण वाली बात को तो सोचा तक नहीं जा सकता था, क्योंकि खालसा गुरू के अतिरिक्त किसी के भी सम्मुख घुटने नहीं टेक सकता, इसलिए रणनीति के दूसरे रूप का ही सहारा लेना समय के अनुकूल था। खुर्द क्षेत्र पहुँचकर सिक्ख फिर से सँगठित हो गए और वे मैदानों की ओर पीछे मुड़कर लखपतराय की फौज पर पुनः टूट पड़े। उन्होंने आक्रमण के समय लखपतराय की तलाश की, किन्तु बहुत पीछे होने के कारण वह हाथ न आया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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