3. दीवान लखपतराय
दीवान लखपतराय के हृदय को शान्ति तभी मिल सकती थी, यदि वह सरदार जस्सा सिंघ
आहलूवालिया और सरदार चड़त सिंघ और उनके साथियों को घोर यातनाएँ देने में सफल हो जाए।
किन्तु वे उस समय लाहौर से बहुत दूर अपने अन्य दस हजार साथियों के साथ कान्हुवाल की
झील के आसपास दिन काट रहे थे। उन दिनों नवाब कपूर सिंह, गुरदयाल सिंह हल्लेवालिया
तथा अन्य महान नेता भी वहीं पर विराजमान थे। दीवान लखपत राय ने अपनी विशाल सेना के
साथ सिक्खों का पीछा करना शुरू कर दिया। इस समय सिक्खों के पास न तो आवश्यक रसद थी
और न ही गोला बारूद और न ही कोई किला था, फिर भी वे बड़ी दिलेरी के साथ लखपत राय की
सेना का मुकाबला करने के लिए तत्पर हो गए, भले ही इस युद्ध में बहुत कड़े जोखिम झेलने
की उन्हें शँका थी। पहले-पहल सिक्खों ने युक्ति से काम लिया। उन्होंने शत्रु को
भ्रम में डालने के लिए बहुत बड़ी सँख्या में अपने आश्रयस्थल त्यागकर भाग निकलने का
नाटक किया। जब रात्रि के समय लखपत राय की सेना असावधान हो गई तो सिक्खों ने लौटकर
एकदम छापा मारा और वे शत्रु की छावनी से बहुत से घोड़े तथा खाना-दाना छीनकर अपने
शिविरों में जा घुसे। इस प्रकार का काण्ड देखकर लखपत राय बहुत खीझा। उसने सिक्खों
के आश्रय स्थलों को आग लगवा दी और भागते हुए सिक्खों को मारने के लिए तोपों की
गोलाबारी तेज कर दी। रावी नदी के पानी का बहाव धीमा तथा गहराई एक स्थान पर कम देखकर
बचे खुचे सिक्खों ने नदी पार कर ली। वे केवल इस विचार से कि शायद पहाड़ों में चले
जाने पर बला टल जाएगी परन्तु स्थानीय बसोहली, यशेल और कठूहे के लोगों ने उन्हें
रास्ते में ही रोक लिया और उनके साथ युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए।