2. सिक्खों का नरसँहार
जसपतराय का सिर काटने की घटना की सूचना लाहौर में शासक वर्ग में पहुँची, वहाँ क्रोध
की ज्वाला भड़क उठी। दीवान लखपतराय के क्रोध का तो पारावार न रहा, वह कहने लगा कि
सिक्खों ने मेरे छोटे भाई की हत्या की है, मैं अब इन सिक्खों का सर्वनाश करके ही दम
लूँगा। वह तुरन्त यहिया खान की शरण में पहुँचा और अपनी पगड़ी उतारकर उसके चरणों में
रखकर यह माँगा कि मुझे सिक्खों का सर्वनाश करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाए। यहिया
खान को तो बिना माँगी मुराद मिल गई। उसने लखपतराय के निवेदन को स्वीकार कर लिया। इस
पर यहिया खान ने सिक्खों के नरसँहार की एक विशाल योजना तैयार की और उसको
क्रियान्वित करने के लिए, इसका नेतृत्त्व लखपतराय को दिया। लखपतराय ने एक-एक सिक्ख
के सिर के लिए इनाम भी निश्चित कर दिया और आदेश भी जारी कर दिया कि श्री गुरू
गोबिन्द सिंघ जी की मर्यादा अनुसार जीवन जाने वाले प्रत्येक सिक्ख का पेट चाक कर
दिया जाए। दीवान लखपतराय ने सन् 1745 ईस्वी के मार्च माह के पहले सप्ताह में
सर्वप्रथम लाहौर नगर के सिक्ख दुकानदारों तथा सरकारी कर्मचारियों को पकड़कर जल्लादों
के हवाले कर दिया। बहुत सारे स्थानीय हिन्दू सिक्खों के प्रति सहानुभूति रखते थे।
इनमें से दो महानुभाव उल्लेखनीय हैः दीवान कौड़ा मल और दीवान लच्छवी दास। ये दोनों
सज्जन लखपत राय के गुरू संत जगत भक्त को साथ लेकर लखपत राय से यह प्रार्थना करने के
लिए पहुँचे कि निर्दोष सिक्खों पर अत्याचार न किया जाए किन्तु दीवान लखपत राय के
कान पर जूँ तक न रेंगी। उसने आशा के विपरीत बड़े कठोर शब्दों में उत्तर दिया कि आप
लोग तो क्या यदि भगवान भी स्वयँ चलकर यहाँ आ जाएँ तब भी मैं सिक्खों को नहीं छोड़ूँगा।
गुरू होने के नाते संत जगत भक्त ने भी लखपत राय को समझाने की चेष्टा की किन्तु गुरू
के सभी तर्क निरर्थक सिद्ध हो गए। जब सोमवार की अमावस को यह रक्तपात न करने पर दबाव
डाला गया, तब भी उस पापी हृदय में कोई परिवर्तन नहीं आया, उल्टे बड़े अनादरपूर्वक
गुरू संत जी से कहा कि आपको इन बातों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। आपको
हस्तक्षेप न करके अपने डेरे में रहना चाहिए। निराशावश गोसाँईं जी के मुख से ये
क्रोध भरे शब्द निकले कि ‘जिन के बल पर तुम अभिमानी बने बैठे हो, वही लोग तेरा
सर्वनाश करवाएँगे। तेरी जड़ भी नहीं बचेगी और सिक्ख पँथ दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित होगा’।