सिक्खों ने ऐसी वीरता से तलवार चलाई कि जहान खान की सेना में भगदड़ मच गई। जगह जगह
शवों के ढेर लग गए। जहान खान को सबक सिखाने के लिए बाबा जी का एक निकटवर्ती सिक्ख
सरदार दयाल सिंह 500 सिंघों के एक विशेष दल को लेकर शत्रु दल को चीरता हुआ जहान खान
की ओर लपका परन्तु जहान खान वहाँ से पीछे हट गया, तभी उनका सामना यकूब खान से हो गया,
उन्होंने उसके सिर पर गुरज गदा दे मारा, जिसके आघात से वह वहीं ढेर हो गया। दूसरी
तरफ जहान खान का नायब सेनापति जमलशाह आगे बढ़ा और बाबा जी को ललकारने लगा। इस पर दोनों
में घमासान युद्ध हुआ, उस समय बाबा दीप सिंह जी की आयु 75 वर्ष की थी, जबकि जमाल
शाह की आयु लगभग 40 वर्ष की रही होगी। उस युवा सेनानायक से दो दो हाथ जब बाबा जी ने
किए तो उनका घोड़ा बुरी तरह से घायल हो गया। इस पर उन्होंने घोड़ा त्याग दिया और पैदल
ही युद्ध करने लगे। बाबा जी ने पैंतरा बदलकर एक खण्डे का वार जमाल शाह की गर्दन पर
किया, जो अचूक रहा परन्तु इस बीच जमालशाह ने बाबा जी पर भी पूरे जोश के साथ तलवार
का वार कर दिया था, जिससे दोनों पक्षों के सरदारों की गर्दनें एक ही समय में कटकर
भूमि पर गिर पड़ीं। दोनों पक्षों की सेनाएँ यह अद्भुत करिश्मा देखकर आश्चर्य में पड़
गई कि तभी निकट खड़े सरदार दयाल सिंह जी ने बाबा जी को ऊँचे स्वर में चिल्ला कर कहा
कि बाबा जी, बाबा जी, आपने तो रणभूमि में चलते समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपना शीश
श्री दरबार साहिब जी में गुरू चरणों में भेंट करूँगा। आप तो यहीं रास्ते में शरीर
त्याग रहे हैं ? जैसे ही यह शब्द मृत बाबा दीप सिंह जी के कानों में गूँजे, वह उसी
क्षण उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि सिक्ख के द्वारा पवित्र हृदय से की गई अरदास
व्यर्थ नहीं जा सकती और उन्होंने आत्मबल से पुनः अपना खण्डा और कटा हुआ सिर उठा लिया।
उन्होंने एक हथेली पर अपना सिर धर लिया और दूसरे हाथ में खण्डा लेकर फिर से
रणक्षेत्र में जूझने लगे।
जब शत्रु पक्ष के सिपाहियों ने मृत बाबा जी को शीश हथेली पर
लेकर रणभूमि में जूझते हुए देखा तो वे भयभीत होकर, अली अली, तोबा तोबा, कहते हुए
रणक्षेत्र से भागने लगे और कहने लगे कि हमने जीवित लोगों को तो लड़ते हुए देखा है
परन्तु सिक्ख तो मर कर भी लड़ते हैं। हम जीवित से तो लड़ सकते हैं, मृत से कैसे लड़ेंगे
? यह अद्भुत आत्मबल का कौतुक देखकर सिक्खों का मनोबल बढ़ता ही गया, वे शत्रु सेना पर
दृढ़ निश्चय को लेकर टूट पड़े। बस फिर क्या था, शत्रु सेना भय के मारे भागने में ही
अपनी भलाई समझने लगी। इस प्रकार युद्ध लड़ते हुए बाबा दीप सिंघ जी श्री दरबार साहब
की ओर आगे बढ़ने लगे। श्री दरबार साहिब जी परिक्रमा में वह आकर गिरे। इस प्रकार बाबा
जी अपनी शपथ निभाते हुए गुरू चरणों में जा विराजे और शहीदों की सूची में सम्मिलित
हो गए। इनके तीन शहीदी स्मारक हैं, प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। यह
सँसार विदित है कि बाबा जी ने शहीद होने के पश्चात् केवल अपनी शपथ की लज्जा हेतु
आत्मबल का प्रयोग किया और सँसार को बताया कि सिक्ख आत्मबल रहते भी सीमाओं में रहता
है परन्तु कभी इसकी आवश्यकता पड़ ही जाए तो इसका सदुपयोग किया जा सकता है। उन्हीं
दिनों दो अफगान सिपाही जो सरहिन्द नगर से लाहौर जा रहे थे ?बुड्ढा रामदास? क्षेत्र
में मार दिये गए। जहान खान ने अपराधियों को पकड़ने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी।
अपराधी तो नहीं मिले परन्तु उन्होंने स्थानीय सिक्ख चौधरी को यातनाएँ देकर मार डाला,
जो कि एक लोकहित व्यक्ति था। बस फिर क्या था, यह हत्याकाण्ड, जहान खान और सिक्खों
के बीच एक और शत्रुता का मुद्दा बनकर उभरा। इसके अतिरिक्त अदीना बेग जो कि जालन्धर
दोआबा का फौजदार था, अब्दाली के आक्रमण के समय उसका सामना न कर पाने की स्थिति में
भागकर शिवालिक पर्वतों में छिप गया था।
उसके स्थान पर अब्दाली ने नसीरूद्दीन को जालन्धर का फौजदार
नियुक्त किया परन्तु अब्दाली की अफगानिस्तान की वापसी पर अदीना बेग दोबारा पर्वतों
से निकल आया और उसने नसीरूद्दीन को पराजित करके फिर से जालन्धर दोआबा पर अधिकार कर
लिया। इस पर तैमूर शाह ने उसे ही 36 लाख वार्षिक मालगुजारी पर जालन्धर का फौजदार
स्वीकार कर लिया परन्तु उसने अपना वचन नहीं निभाया। इस पर तैमूर ने उसके विरूद्ध
सरफराज खान तथा मुराद खान को भारी फौज देकर अदीना बेग को मजा चखाने के लिए भेज दिया।
जब अदीना बेग को इस धावे का पता चला तो उसने सोढी वडभाग सिंह करतारपुरिया के द्वारा
सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया से सहायता की याचना की। सरदार जस्सा सिंघ जी एक अनुभवी
राजनीतिज्ञ थे। अतः उन्होंने इसमें सिक्खों की भलाई को मद्देनज़र रखते हुए सहायता
देना स्वीकार कर लिया। वास्तव में वह दुर्रानियों द्वारा गुरूद्वारा श्री थम्ब
साहिब जी करतारपुर तथा श्री दरबार साहिब, श्री अमृतसर साहिब जी के अपमान का बदला
लेना चाहते थे। सरदार जस्सा सिंघ आहलूवालिया का संकेत प्राप्त होते ही खालसा,
दुर्रानी की सेनाओं से लोहा लेने के लिए वे निश्चित स्थान पर एकत्रित होने लगे।
दिसम्बर, 1757 को माहलपुर नगर की पूर्व दिशा में सिक्खों और दुर्रानी की सेना के
बीच झड़पें हुई। सिक्खों के लिए दुर्रानी के सैनिकों और अदीना बेग के सैनिकों में
भेद करना कठिन हो रहा था, इसलिए अदीना बेग के सैनिकों से कहा गया कि वे पहचान के
लिए अपनी पगड़ियों में हरी घास के बड़े-बड़े तिनके लटका लें। भले ही दुर्रानियों के
पास छोटी तोपें भी थी, फिर भी क्रोध्र में लाल हुए सिक्खों के सामने वे टिक न पाए
और मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। बलँद खां लड़ाई में मारा गया। मुराद खाँ भी सब कुछ
छोड़कर मैदान से खिसक गया। इस प्रकार दुर्रानी पराजित होकर तितर-बितर हो गए। सरदार
जस्सा सिंघ जी ?सत श्री अकाल? का जयकारा लगाता हुआ जालन्धर पर टूट पड़ा। तैमूर शाह
के समर्थक शआदत खान अफरीदी सिक्खों की मार झेल न सका। इस पर अदीना बेग ने जालन्धर
को धवस्त होने से बचाने के लिए सवा लाख रूपये भेंट किए। यह सिक्खों की शानदार विजय
थी।